-वीर विनोद छाबड़ा
साठ के दशक का मध्य। हम
हाई स्कूल में थे। अंग्रेजी माध्यम के मिशनरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चो को अंग्रेजी
में गिटपिटाते देख कर हीन भावना उत्पन्न होती थी। हमें कोफ़्त होती थी कि ऊपर वाला अगर
हमें गरीब की बजाये किसी अमीर की झोली में दाल देता तो क्या घिस जाता? तब हम भी कान्वेंट
में पढ़ रहे होते। कभी-कभी ये सुखद कल्पना करके पुलकित होते थे कि हम वास्तव अमीर माता-पिता
की मेले में बिछुड़ी संतान हैं। बरसों बाद वो हमें लेने आये हैं और हमें पाल-पोस कर
बड़ा करने वाले माता-पिता भारी मन से हमें विदा कर रहे हैं...इसके आगे हम जब भी कुछ
सोचने लगते तो माताजी अवश्य टांग अड़ा देतीं - जा दूध ले आ। लौटते पे सब्जी भी ले आना।
फिर पढ़ना भी है। और झमेलों की भीड़ में हम गुम हो जाते।
कभी हम ये भी सोचते कि
ये गरीब माता-पिता ही ठीक हैं। बंदर-भालू का तमाशा तो देख लेते हैं। सड़क किनारे जादू
का खेल भी कभी-कभार देखने को मिल जाता है। हाफरेट सिनेमाहाल में चालीस पैसे की फ्रंट
क्लास में बिंदास बैठ तो जाते हैं।
एक दिन क्या हुआ कि अमीरों
की बस्ती के अंग्रेज़ी बोलने वाले लड़कों से हम हिंदी बोलने वालों का क्रिकेट मैच लग
गया। दरअसल, हम गरीबों में से किसी एक की वहां रिश्तेदारी थी। उसकी एक अंग्रेज़ी
वाले से बहस हो गयी कि पटौदी बढ़िया है या सरदेसाई। बात इतनी आगे निकली कि तय हुआ कि
मैच हो जाये। तुम अमीरजादे जीते तो पटौदी बढ़िया और हम फुकरों की टीम जीती तो सरदेसाई
टॉप पर।
नदिया किनारे मैदान में
मैच हुआ। नम पिच पर सरदेसाई टीम की ज़बरदस्त हार हुई और पटौदी की जीत। यों उन्हें जीतना
ही था। उनकी क्रिकेट कोचिंग बढ़िया थी, उनके हरेक सदस्य की किट
में बढ़िया बैट, ग्लव्स, पैड आदि है और
हमारे पास कुछ नहीं, ठन ठन गोपाल। कपडे धोने
वाले सोटे को बैट बना कर क्रिकेट खेलना सीखे थे। न बैट खरीदने के लिए पैसे होते थे
और न गेंद के लिए। चंदा करके बामुश्किल काम चलता था। ईटों की विकेट बनाते थे। खेलते
कम थे और झगड़ते ज्यादा थे।
हम उस दिन हारे ज़रूर, लेकिन हमने हार
से कहीं ज्यादा बड़ी ख़ुशी पायी। हमारे दिमाग में ठुंसा हुआ बरसों पुराना सारा का सारा
कॉमप्लेक्स दूर हो गया। हम इन्हें ख़ामख़्वाह ही भले लोक के जीव समझते थे। ये तो अपने
ही जैसे हैं। हमने देखा कि ये अमीर भी आपस में खूब झगड़ते हैं, एक-दूसरे को गंदी-गंदी
गालियां देते हैं। अब तक हम सोचते थे कि हम गरीब को ही यह हक़ है। लेकिन ये तो हमारे
जैसे ही निकले।
हमारी रही-सही हीन भावना
उस दिन बिलकुल ही खत्म हो गयी जब एक दिन पटौदी टीम के एक सदस्य को हमने एक गली में
देखा। वो वहां पर छुप कर सिगरेट का धुआं उड़ा रहा था। उसने हमें देख कर सिगरेट ऑफर की।
लेकिन हमने मना कर दिया। तब हम सिगरेट पीते नहीं थे।
कुछ वक्त बाद हमें ये भी
पता चला कि कम्पटीशन में हाई-स्कूल इंटरमीडिएट बोर्ड के हिंदी मीडियम से पढ़े स्टूडेंट्स
की हनक ज्यादा रहती थी। सिर्फ रहन-सहन छोड़ दें तो गरीबों की बस्ती वाले बच्चे किसी
से कम नहीं थे। बल्कि ज़िंदगी के कई अनुभवों से अमीरों के बच्चे वंचित रहते हैं। भालू-बंदर
का तमाशा उनके नसीब में नहीं। कंचे और गुल्ली-डंडे को वो ललचाई नज़रों से देखते हैं।
सिगरेट की खाली डिब्बियों से वो कभी नहीं खेले। गोटियों को कभी नहीं देखा उन्होंने।
हाफ-रेट के सिनेमाहालों के अंदर से कभी दर्शन नहीं कर पाए...
अचानक गुज़रे दौर से हम
बाहर निकलते हैं। कोई जोर जोर से किवाड़ पीट रहा है। हमारी तरह रिटायर्ड मित्र हैं।
अमीरी-गरीबी और महंगाई के मुद्दे पर जम कर
बुकराती करेंगे, लेकिन कर कुछ नहीं पाएंगे।
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Published in Prabhat Khabar dated 19 Sept 2016
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अद्भुत लेखन शैली सर | इतनी कि मैं एक सांस में पूरी की पूरी पोस्ट पढ़ गया आपका जबरदस्त प्रशंसक बन कर जा रहा हूँ अब रोज़ आने के लिए | बहुत बहुत शुभकामनायें आपको सर
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