Tuesday, September 27, 2016

रीयल बॉस

- वीर विनोद छाबड़ा
अमेरिका के एक भीड़-भाड़ वाले शहर में एक रेस्तरां है। अच्छी खासी भीड़ है। एक नीग्रो रेस्तरां के एक कोने में बैठा बीयर पी रहा है।
तभी हिटलर जैसी नस्लवादी सोच वाला एक गोरा साहब दाखिल होता है। नीग्रो को देख कर उसकी भवें चढ़ जाती हैं। बहुत खार खाता है वो काली चमड़ी वालों से। धरती पर बोझ हैं। अगर पुलिस का खौफ नहीं होता तो वो
उसे गोली मार देता। अचानक उसे ख्याल आया कि उस नीग्रो को अहसास कराया जाए कि वो उससे कितनी घृणा करता है। उसने रेस्तरां के मैनेजर को तलब किया - इस रेस्तरां में जितने भी ग्राहक बैठे हैं, उनके डिनर और शराब का बिल मैं चुकाऊंगा, सिवाय उस बास्टर्ड नीग्रो को छोड़ कर।
कुछ देर बाद।
गोरे साहब ने देखा कि नीग्रो अब भी ठाठ से बैठा हुआ बीयर पी रहा है। अब तो गोरे साहब का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने फिर मैनेजर को तलब किया। इस रेस्तरां में बैठे सभी सज्जनों को बता दें कि कल का लंच और बीयर भी मेरी तरफ से रहेगा, सिवाय उस काली चमड़ी वाले को ताकि उसे अहसास हो सके कि वो कितना अवांछित व्यक्ति है।

अगले दिन गोरे साहब उस रेस्तरां में फिर पहुंचे। देखा, आज भी वो काली चमड़ी वाला नीग्रो वहां उसी स्थान पर मौजूद है और वो सिगार पी रहा था। गोरे साहब गुस्से से थर थर काँपने लगे - मैनेजर, इतना अपमानित होने के बावजूद इस नीग्रो की हिम्मत कैसे हुई यहां बैठने की? मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हूं। इसे फ़ौरन से पेश्तर यहां से दफ़ा करो।
मैनेजर ने क्षमायाचना सहित निवेदन किया - इस आदमी को यहां से बाहर करना मुश्किल है।
गोरे साहब चीखे -  क्यों? कौन है यह गुस्ताख़ आदमी।
मैनेजर ने बड़ी विनम्रता से बताया - यह आदमी इस रेस्तरां का रीयल बॉस है।

नोट - वर्ष पूर्व मेरे एक मित्र ने मुझे यह कथा सुनाई थी। 
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Lucknow - 226016

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