Friday, September 2, 2016

कड़ाह प्रशाद बोले तो आटे का हलवा।

- वीर विनोद छाबड़ा
हम बहुत पॉज़िटिव और शरीफ़ आदमी हैं। हर छोटी-बड़ी ख़ुशी को बांटते हैं। आज की सुबह भी कुछ ऐसी ही थी।
यों तो हम हर सुबह को खुशनुमा मानते हैं। लेकिन जिस दिन हलवा मिल जाये तो वो सुबह ख़ास होती है। आज नाश्ते में मेमसाब ने आटे का हलवा पेश किया।

अब मेमसाब ने आटे का हलवा क्यों बनाया, यह तो हमें मालूम नहीं। लेकिन जब वो खुश होती हैं तभी बनता है। और खुश अधिकतर तभी होती हैं जब गुज़री रात सपने में कोई मायके वाला दिखा हो। हम तो चाहते हैं कि उनको सपने आते रहें और उनमें सिर्फ़ और सिर्फ़ मायके वाले ही दिखें। हमारी जेब से तो कुछ जा भी नहीं रहा। बल्कि फायदा ही होता है।
यूं आटे का हलवा सामने हो तो हमें गुरद्वारे का देशी घी में बना और कटारी से काटा कड़ाह प्रशाद ज़रूर याद आता है। उस हलवे का स्वाद इतना ज़बरदस्त होता है कि बस उंगलियां चाटते रह जाओ। 
हमारे बचपन का कुछ हिस्सा लखनऊ के आलमबाग के चंदर नगर एरिया में गुज़रा है। पार्टीशन के बाद आये पंजाबी रिफ्यूजी यहीं बसे थे। उन्होंने एक गुरुद्वारा बनाया। मेरे मामा ठीक गुरद्वारे के सामने ही रहते थे। अब मामा तो रहे नहीं लेकिन उनका परिवार है वहां। बचपन में खूब खाया है वहां का कड़ाह प्रशाद। अब भी जब कभी जाना होता है तो मत्था टेकने चला जाता हूं। इसी बहाने कड़ाह प्रशाद मिल जाता है।
कोई २२ साल चारबाग़ में गुज़ारे। कॉलेज आने-जाने के रास्ते में पड़ता था नाका हिंडोला का बड़ा गुरद्वारा। कई बार मत्था टेका और कड़ाह प्रशाद ग्रहण किया।

संयोग से हमारी ससुराल भी पानदरीबा के चूहड़ सिंह बिल्डिंग परिसर में बने गुरद्वारे से लगी हुई थी। बस समझ लीजिये कि गुरद्वारे और हमारी ससुराल की चारदीवारी के बीच साईकिल भर गुज़रने का रास्ता था। जब-जब ससुराल गए, कड़ाह प्रसाद से स्वागत हुआ। अब वहां कोई नहीं रहता।
अब तो कोई दुःख-सुख हो तभी गुरद्वारे जाना होता है। और इसी बहाने मत्था टेकना होता है और कड़ाह प्रशाद ग्रहण करना भी।
नोट - हमने मेमसाब से कभी नहीं पूछा कि यह कैसे बना। ख़तरा रहता है कि कहीं रसोई में खड़ा न कर दिया जाऊं - सीखो बनाना। जहां तक जानकारी है, कड़ाह प्रशाद बनाने की विधि वही है जो सूजी का हलवा बनाने की होती है।
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