-वीर विनोद छाबड़ा
बात तब की है जब मैं यूनिवर्सिटी में था। यानि ४३ साल पहले।
एक लड़की से अच्छी दोस्ती थी। मालूम नहीं वो पसंद करती थी या
नहीं। मगर मुझे नींद नहीं आती थी। हमारी नींद हराम, तो मित्रों की क्यों
न हों?
उसका उठना-बैठना,
मुस्कुराना, कनखियों से देखना, नैन-नक्श, उसके परिधान का रंग और स्टाइल, चपल्ल-सैंडिल आदि सब असाधारण लगता था।
इंद्र दरबार की ब्यूटी क्वीन मेनका-उर्वशी आदि सब बेकार थीं।
उसका मोहल्ला,
वो गली और वो मख़्सूस मकान। सब याद है अभी भी। उस दिन यूनिवर्सिटी
का आखिरी दिन।
मैंने कहा - अब तो कभी मिलना होगा नहीं शायद।
वो हंस दी।
मैंने कहा - हफ्ते में एक दिन, सैटरडे को मैं चिड़ियाघर
ज़रूर जाता हूं।
मेरी बात पर वो बड़ी ज़ोर से हंसी। इतनी जोर से कि आस-पास से गुजरने
वाले भी देखने लगे।
वो बोली - क्या जगह तलाश की है। कोई और जगह नहीं मिली। कोई पिंजड़ा
भी तलाशा है क्या?
यह कह कर वो हंसते-हंसते चली गयी। और मैं दूर तक गुब्बार उड़ते
हुए देखता रहा। सपने को टूटते हुए देखता रहा।
दोबारा मैंने उसे दस साल बाद देखा। अपने पति और दो बच्चों के
साथ थी वो। ये सपना नहीं हक़ीक़त थी।
मैंने भी सोचा - चलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली....हम तो
मुद्दत तक खाली रहे और अब.… दास्तां बन गई तुम।
उक्त किस्सा मेरे एक का है। हमारे वो मित्र जब कभी किसी भी वज़ह
से उदास होते हैं तो अपनी ये दास्तां सुनाने चले आते हैं।
वो बताते हैं - आज भी जब-तब किसी न किसी बहाने उस मोहल्ले में जाता हूं। उस गली के उस मख़्सूस मकान
को दूर से एक बार हसरत भरी निगाह से ज़रूर देख लेता हूं।
मैं भी बोर नहीं होता। अपने हाथ से चाय बनाकर पिलाता हूं। अपनी
भी दास्तां कुछ उनके जैसी जो रही है।
-वीर विनोद छाबड़ा
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