-वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन संत फ्रांसिस एक पेड़ की छांव तले बैठे बाईबिल के अध्ययन में खोये हुए थे।
यह उनका नित का नियम था। उनके इस कार्यक्रम में कोई बाधा नहीं डालता था।
तभी एक भिखारिन आई। वो और उसके बच्चे पिछले कई दिन से भूखे थे। उसने करुण स्वर
में संत फ्रांसिस से विनती की - प्रभु के नाम पर कुछ खाने को मिल जाता।
संत फ्रांसिस भावुक हो करुणा से भर गए। परंतु उनके पास कुछ था ही नहीं देने को।
वो स्वयं, तन पर पहने हुए कपडे और बाईबिल,
बस यही पूँजी थी।
संत फ्रांसिस असमंजस्य में थे कि क्या दूं? इस भिखारिन की उम्मीदों
को कैसे पूरा करूं?
सहसा उनके ज़हन में एक आईडिया आया। उन्होंने अपनी बाईबिल दे दी - आज मेरे पास यही
है। इसे बेच कर जो पैसे तुम्हें मिलें उससे तुम अपना और बच्चों का पेट भर लेना।
उस भिखारिन ने संत फ्रांसिस को आशीष दिया। संत फ्रांसिस ने आंख बंद करके आसमान
की ओर सर उठाया - हे दयावान, परोपकारी सबसे प्रेम करने वाले प्रभु मुझे क्षमा करना। दान देने के लिए मेरे पास
दूसरा विकल्प नहीं था।
संत फ्रांसिस को उस वक़्त नहीं मालूम था कि जो उन्होंने दान किया वो सबस बड़ा दान
था।
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24-04-2015
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24-04-2015
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