-वीर विनोद छाबड़ा
साठ-सत्तर का ज़माना। लखनऊ से प्रकाशित मासिक कथा पत्रिका 'कात्यायनी' के संपादक हुआ करते थे - अश्विनी कुमार द्विवेदी। हमारे गुरु थे वो।
एक दिन द्विवेदीजी बोले - मैंने कभी भुतही अंग्रेज़ी फिल्म नहीं देखी है।
उन दिनों ओडियन में 'ड्रैकुला हैज़ राइज़ेन फ्रॉम ग्रेव' चल रही थी। ये कदाचित १९७२ बात है। एक शर्त और लगा दी उन्होंने - नाईट शो देखेंगे।
मुझे तो काटो खून नहीं। भुतही फिल्म और वो भी नाईट शो! दिन में भी ऐसी फिल्म देख लूं तो मेरे प्राण निकल जाएं।
बहुत अनुनय किया पर वो माने नहीं। बड़े थे और फिर मेरे गुरु। अभी उनसे आगे भी बहुत कुछ सीखना था। न नहीं कर पाया।
द्विवेदीजी कभी-कभी प्रेस में ही रुकते थे। उस दिन भी उनका यही इरादा था।
ओडियन प्रेस से कोई किलोमीटर भर की दूरी पर था। मैंने साइकिल वहीं प्रेस पर खड़ी कर दी। द्विवेदीजी न साइकिल चलाते थे और न बैठते थे।
हम खरामा-खरामा चल दिए। सच बताऊं, भले ही मैं भूत प्रेतों पर यकीन नहीं करता था, लेकिन भुतही फिल्मों से दूर रहता था।
खैर, फिल्म शुरू हुई। कब्र फाड़ कर निकले ड्रैकुला को ज़िंदा आदमी का खून पीते देख कई बार थर-थर कांपा। कई बार डरावने दृश्य का अंदेशा होते ही आंखें ही बंद कर लीं।
जैसे-तैसे राम-राम करके फिल्म ख़त्म हुई। मैंने देखा द्विवेदीजी के चेहरे पर डर के कतई भाव नहीं थे। वो मुस्कुरा रहे थे। शायद भुतही कहानी की कल्पना पर। जबकि मैं भीगी बिल्ली समान चुप था । मुहं से बोल नहीं फूट रहे थे।
द्विवेदी जी बोले - ये अंग्रेज़ तो हम भारतीयों से भी ज्यादा अंधविश्वासी हैं। भुतही कल्पनाशीलता गज़ब है। मैं सिर्फ हूं-हूं करता रहा।
वो चांदनी रात थी। गर्मी की शुरआत। तन को छूने वाली हलकी-हलकी हवा भी चल रही थी। पता ही नहीं चला कब द्विवेदी जी ओडियन के बगल से हीवेट रोड को मिलने वाली गली में घुस गए। ख्याल आया तो पूछा - इधर से कहां? मेन रोड से निकलते हैं।
वो बोले - इधर शार्ट कट है। पांच मिनट में पहुंच जायेंगे।
मैं इस गली के चप्पे-चप्पे से भिज्ञ था। कई लोग बाहर चद्दर ताने सो रहे थे। एक साहब तो सफेद चादर ओढे थे। देख कर रूह कांप गयी। मैं तो ठिठक गया। कस कर द्विवेदी जी का हाथ पकड़ लिया।
मेरे हाथों की कंपकपी को अपने हाथ पर महसूस करके द्विवेदी जी बोले - क्या हुआ?
मैंने कहा - कुछ नहीं। वो पैर में कुछ चुभ सा रहा था।
हम फिर चल दिए। द्विवेदी जी बता रहे थे कि उनके गांव में भी प्रेत का हौवा होता था। लोग रात में पीपल के पेड़ तले से नहीं निकलते थे। मैं चाहता था कि द्विवेदी जी कोई दूसरी बात करें।
अचानक मेरे मुंह से चीख निकलते-निकलते बची। मेरे पैरों को मानो किसी ने जकड लिया था। मैंने कस कर दिवेदीजी का हाथ पकड़ लिया। मुझे महसूस हुआ कि दिवेदी जी का भी बदन कांप रहा है। चेहरे पर भय की गहरी रेखाएं और उनमें बहता पसीना भी दिख रहा था।
सामने कोई सफ़ेद आकृति झूम-झूम रही थी। दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ भी सुनाई दे रही थी।
मारे डर के न मेरे मुंह से आवाज़ निकल रही थी और न द्विवेदीजी के।
मैं मुड़ कर पीछे भागने की सोच ही रहा था कि द्विवेदीजी जोर से हंसे।
मैं और भी डर गया। लगा कोई प्रेत दिवेदी जी पर सवार हो गया है।
इतने में द्विवेदीजी आगे बढे और उस झूमते सफ़ेद साये को पकड़ कर खींच लिया। वो एक सफ़ेद धोती थी जो लकड़ी की बल्ली पर शायद किसी ने सूखने के लिए टांग दी थी।
मुझे याद आया ये कबाड़ी की दुकान है जो दिन में इस बल्ली पर तराज़ू टांग कर कबाड़ तौलता है।
मेरी जान में जान आई। और मैं भी हंस दिया। लेकिन मेरी आंख से आंसू भी निकल रहे थे।
फिर हम हसंते हंसते प्रेस पहुंचे।
मैंने साइकिल उठाई और 'वो कौन थी?' का भुतहा गाना जोर जोर से गाता हुआ घर की ओर चल दिया - नैना बरसे रिमझिम रिमझिम…
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-वीर विनोद छाबड़ा 19-04-2015
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