-वीर विनोद छाबड़ा
शास्त्रीय संगीत और गायन की नामचीन हस्ती उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का आज जन्म
दिन है। विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए उस्ताद बड़े गुलाम अली खां को पाकिस्तान रास
नहीं आया। वो भारत लौट आये। तत्कालीन गृहमंत्री मोरारजी देसाई की मदद से भारत में स्थाई
रूप से रहने का उन्हें वीज़ा मिल गया।
मगर सिनेमा से बहुत दूर भागते थे उस्ताद बड़े गुलाम अली खां।
सिनेमा के ख़लीफ़ा माने गए के.आसिफ़ उन दिनों एक महंगी फिल्म 'मुगल-ए-आज़म' बना रहे थे। सिचुएशन के हिसाब से दो सीन में कोई धीर-गंभीर आवाज़
की ज़रूरत महसूस हो रही थी।
संगीतकार नौशाद अली ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का नाम सुझाया।
आसिफ बोले - परेशानी क्या है? बुला लो।
नौशाद थोड़ा गंभीर हुए - कोई आसान नहीं
है यह। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब को फिल्मों से सख्त इंकार है। और दूसरी बात यह
कि वो यूं बुलावे से नहीं आयेंगे। बहुत बड़े कलाकार हैं। और फिर वो भी सिनेमा के लिए
तो हरगिज़ नहीं। जाना पड़ेगा।
के.आसिफ़ अपनी फिल्म की बेहतरी के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। बोले - तो इसमें
सोचने की क्या बात है। अभी चलते हैं।
के.आसिफ़ और नौशाद साब पहुंचे उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के द्वारे।
नौशाद साहब बहुत डरे हुए थे। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां मानेंगे नहीं और के. आसिफ़
महा ज़िद्दी। कोई बड़ा हंगामा न हो जाए।
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने बड़ी शान्ति से पूरा माज़रा सुना और साफ़ मना कर दिया।
के. आसिफ़ अपने प्रस्ताव पर न सुनने के आदी नहीं थे। बोले - मुंह मांगी कीमत दूंगा।
मैं कोई फिल्म नहीं तस्वीर बना रहा हूं। बहुत बड़ा शाहकार।
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां ने तब भी ना-नुकुर जारी रखी।
लेकिन के.आसिफ़ भी हार मान कर लौटने वालों में से नहीं थे।
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब ने देखा कि आसिफ़ यूं भागने वालों में से नहीं है।
सोचा ऊंची रकम मांग लूं शायद भाग जायें। बोले - तो ठीक है आसिफ़। मैं गाऊंगा ज़रूर। लेकिन
रूपए पच्चीस हज़ार फी गाना के हिसाब से।
उन दिनों रफ़ी और लता जैसे क्लास-वन सिंगर की फीस पांच सौ रूपए हुआ करती थी।
नौशाद अली समझ रहे थे कि खां साहब बहुत ज्यादती कर रहे हैं।
लेकिन इधर आसिफ़ महा के ज़िद्दी थे। धुन सवार थी। सिगरेट का लंबा कश खींचा और बोले
- दिए। अब चलिए उस्ताद जी। रिकॉर्डिंग करायें।
यह दो गाने थे -
१) प्रेम जोगन बनके सुंदरी…और
२) शुभ दिन आयो राज दुलारा…
उस्ताद की आवाज़ गाने तानसेन की भूमिका कर रहे अपने ज़माने के मशहूर सिंगिंग स्टार
सुरेंद्र को दी गयी। सुरेंद्र को उस ज़माने के एक और क्लासिकल सिंगर उस्ताद अमीर अली
खां की आवाज़ भी 'बैजू बावरा' (१९५२) में मिली थी।
नोट - प्रेम जोगन… दिलीप कुमार और मधुबाला
के लव-सीन की पृष्ठभूमि में फिल्माया गया था। उन दिनों दिलीप-मधुबाला में महायुद्ध
चल रहा था। एक-दूसरे से बात नहीं होती थी। लेकिन इस गाने के फिल्मांकन के दौरान उभरे
प्रेम जज़्बात दुनिया में श्रेष्टतम माने गए हैं।
दिनांक
०२-०४-२०१५
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