Saturday, April 25, 2015

भांति-भांति की रस्सियां!

-वीर विनोद छाबड़ा 
हाल की घटना मैं विचलित ही नहीं व्यथित भी हूं। पच्चीस साल पीछे चला गया। उन दिनों अवसाद के दौर से गुज़र रहा था। 
मैं बाज़ार जाता हूं रस्सी खरीदने। एक दुकान में घुसता हूं। भांति-भांति की रस्सियां टंगी थीं।
मैंने दुकानदार से कहा - कोई मज़बूत किस्म की रस्सी चाहिए जो अस्सी किलो का बोझ सह सके।
दुकानदार ने कहा - मिल जाएगी। लेकिन श्रीमानजी प्रयोजन तो बतायें।
सुनकर गुस्सा आ गया - अरे भाई, तुमको इससे का मतलब। मुझे आत्महत्या करनी है या कुएं से आदमी को बाहर खींचना है।
दुकानदार समझदार था। बोला - माफ़ कीजियेगा। मैंने तो वैसे ही पूछ लिया था।
फिर दुकानदार ने एक मज़बूत रस्सी की ओर इशारा करते हुए कहा - यह वाली ले लें। दोनों ही प्रयोजन संपन्न करेगी, आदमी के झूला झूलने का भी और खींचने का भी। लेकिन इस बात का ख्याल रहे कि हुक मज़बूत हो।
मुझे ख्याल आता है कि यूपी आवास-विकास परिषद् से जब मकान खरीदा था बताया गया था कि यह हुक सिर्फ़ पंखा लटकाने के लिए ही है। इसका मतलब यह हुआ कि हो सकता है कि हुक मेरा अस्सी किलो का बोझ न सह सके। हुक के टूटने का मतलब यह होगा कि पंखा भी नीचे आ गिरे। सर पर चोट लग सकती है। चोट ज्यादा हुई तो डॉक्टर सीटी रेफेर करेगा। फिर ऑपरेशनलंबा खर्चा बैठ जाएगा।  अभी पिछले ही महीने तो पैसा-पैसा जोड़ कर खरीदा है पंखा। इसकी ठंडी-ठंडी हवा का कायदे से लुत्फ़ भी नहीं उठा पाया।
एक मुसीबत और भी है। पत्नी दिन भर साये की भांति चिपकी रहती है। हर पंद्रह मिनट पर झांकने आती है कि निठल्ला पति कर क्या रहा है?
हुक से रस्सी फंसाने के लिए कम से कम आधा घंटा टाइम चाहिये।
सुसाइड नोट भी तो लिखना होगा। बहुत सोच-समझ कर लिखना होगा। लेकिन ठोस कारण भी तो होना चाहिये। किससे परेशान हूं? खुद से या पत्नी से? या ऑफिस के कामकाज या साथियों से। या फिर अड़ोस-पड़ोस से। मगर इनमें से कोई भी तो कारण नहीं?
ऐसा न हो कि इतना हल्का कारण हो कि किसी को यकीन ही न हो कि सुसाइड का इतना हल्का कारण भी हो सकता है। खिल्ली उड़ेगी। फिर तो फिलहाल सुसाइड प्लान स्थगित करना ही उचित होगा।
तभी पीछे से कोई चीखा - अबे अंधा है क्या? देखता नहीं पीछे सड़क का बाप चला आ रहा है।
मैंने पीछे मुड़ कर देखा। अरे यह क्या? जाने कब बेख्याली में मैं सड़क के बीचो-बीच आ गया था और एक ट्रक ड्राइवर मुझे भद्दी भद्दी गालियां दे रहा था - साले मरने चले आते हैं। जाने क्यों मेरा ही ट्रक मिलता है सबको।
एक डर ये भी लगा कि आत्महत्या में नाकाम रहने पर समाज व परिवार भले ही रहम कर जाये पर कानून नहीं करेगा। मुकदमा चलेगा है। वकील करना पड़ेगा। अच्छा-खासा पैसा खर्च होगा। इतनी भाग-दौड़ करनी होगी कि आदमी जीते जी मर जाए। और खुद को प्रताड़ित करना सिद्ध होने पर सजा का भी प्राविधान है। हटाओ छोड़ो। साला सुसाइड करने में कितना झंझट है।
मगर इस रस्सी का क्या करूं?
रखे रहो। कभी किसी कुएं में डूबते हुए को सहारा देने के काम आएगी।
तभी घर आ गया। पत्नी ने हाथ में रस्सी देखी तो बोली - अरे वाह! मैं इसी के बारे में सोच रही थी। आंगन में बांधेंगे कपडे सुखाने के लिए।
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25-04-2015 mob. 

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