-वीर विनोद छाबड़ा
अभी थोड़ी देर पहले एक फ़ोन आया - ओए बिल्लू, तू कित्थे हैं?
यह मेरा बचपन का दोस्त गुरमीत सिंह भाटिया ऊर्फ काके था। मुझे इस नाम से मेरे बचपन
के दोस्त ही बुलाते हैं या फिर ऐसे नाते-रिश्तेदार, जिन्होंने मेरा बचपन
देखा है। या फिर बहुत निकटवर्ती मित्र।
माता-पिता भी इसी नाम से बुलाते थे। लेकिन शादी के बाद उन्होंने बिल्लू कहना बंद
कर दिया। अब तुम बड़े हो चुके हो। बहु क्या सोचेगी उसका पति अभी बच्चा है।
बड़े होने पर मैंने मां पूछा था - ये बिल्लू नाम क्यों रखा? बड़ा अजीब सा लगता है
न। लगता है कोई उल्लू कह रहा हो।
मां हंस दी थी - तेरी आंखें नीली-नीली थीं न इसलिए। और फिर रात भर जगाता था।
यों भी अब बचे ही कितने हैं इस नाम से जानने वाले। सभी तो चले गए बारी-बारी। दिल्ली
में दो चाचा हैं और एक चाची। भोपाल में मामा-मामी और बीकानेर में बड़ी बहन। लेकिन अब
बिल्लू के नाम से नहीं संबोधित करते। इन्होने भी शादी के बाद बिल्लू कहना बंद कर दिया
था।
अभी दो साल पहले दिल्ली गया था। बड़े चाचा से कहा भी कि मेरा तो बचपन आपकी गोद में
गुज़रा है। आप क्यों नहीं कहते - बिल्लू।
कहने लगे - यार अब तू सीनियर सिटिज़न हो
चुका है।
बचपन के एक-दो दोस्त ही तो बचे हैं जो मुझे बचपन के इस नाम से याद करते हैं। जब
कभी मिलते हैं तो बचपन लौट आता है। एक-दूजे के लिए वही हर्षी, पप्पू, काके और बिल्लू से
संबोधन। बड़ा प्यारा और सुरीला लगता है।
बचपन में हम सब एक-दूसरे को घरेलू नाम से संबोधित करते थे। काके, पप्पू, मन्ना, विंदर, छोटे मुन्ना, बड़े मुन्ना, बड़े भैया आदि। यदि
किसी का कोई बाहरी दोस्त उसके असली नाम से तलाशता हुआ न आता तो हम असली नाम जान ही
नहीं पाते।
बचपन गया तो जगह भी बदल गयी। कोई पूरब गया तो कोई पश्चिम। रोज़ी-रोटी की तलाश देश
के कोने कोने में बहा ले गई। सब बिखर गए। कुछ तो बाहर चले गए तो कुछ इसी शहर में खो
गए। कुछ तो हमेशा के लिए और कुछ को समय की धारा ने फिर मिला दिया।
यह मेरा बचपन का दोस्त काके है न। इसको एक दिन सनक सवार हुई अपने निक्कर फ्रेंड्स
को तलाशने की। सबसे पहले इसने मुझे तलाशा और हम दोनों ने मिल कर दो और को ढूंढ निकाला।
कितना लंबा अरसा गुज़र गया। सब नाना या दादा बन चुके हैं। जब मिलते हैं तो उस बचपन को
ही याद करते जो साथ में गुज़ारा। वो शरारतें वो आपसी बेबात के झगड़े। कितने नादां और
मूर्ख थे कि छोटी-छोटी बात पर एक दूसरे से रूठ जाना। अपने मोहल्ले की लड़कियों को भी
याद करते हैं। वो भी अब नानी-दादी बन चुकी होंगी। अपने मां-बाप नहीं रहे तो उनके समकालीन
भी शायद दिवंगत हो चुके होंगे। यादों के गुज़रे सफर से लौट कर हम घर लौटते हैं जल्द
ही फिर मिलने के लिए।
फेस-बुक ने मुझे कक्षा छह से आठ तक साथ पढ़े सोमेंद्र भट्टाचार्य और गुरदीप सिंह
से मिलाया है। इनसे मिलना है जल्दी। देखूं किस नाम से जानते हैं। कभी कभी होता है छुटपन
में कि घरेलू नाम स्कूल भी पहुंच जाता है।
मैं फिर अपनी बचपन की पहचान बिल्लू पर लौटता हूं। यह पहचान अभी तक विस्मृत नहीं
हुई है।
मेरी छोटी बहन है। मेरे साथ ही रहती है। वो मुझे इसी नाम से बुलाती है। आजकल पैरालीसिस
के कारण चल-फिर नहीं सकती। ऐसी स्थिति कई महीनों से है। नौकरी के सिलसिले में बेटा
उसका बाहर है। उसकी आया देर में आती है। तब तक वो सहायता के लिए मुझे रोज़ सुबह इसी
बिल्लू के नाम से बुलाती है। कभी-कभी लगातार बुलाती है।
झुंझुला कर मैं कहता हूं- कहीं नहीं गया बिल्लू। यहीं है।
वो रोज़ाना मुझे बिल्लू कह कर बुलाती है तो
ऐसा लगता है जैसे वो मुझे अपने बचपन से साक्षात्कार कराती है। याद दिलाती है
तू बिल्लू है। भोंदू सा। और मैं काफी देर तक डूबा रहता हूं अपने अतीत में।
दिनांक ०४-०४-२०१५
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