- वीर विनोद छाबड़ा
उस ज़माने में दामाद किसी एक घर का नहीं, पूरे मोहल्ले का होता था। लाख दुश्मनी सही, लेकिन तेरा दामाद, मेरा दामाद की भावना
सर्वोपरि थी।
स्टेशन पर अगुवानी के लिए डेलीगेशन में दो-चार अड़ोसी-पड़ोसी ज़रूर सम्मिलित किये
जाते। दामाद जी और उनके घरवालों के सामने मूंछ ऊंची होती थी। कोई ऐरे-गैरे का दामाद
नहीं तू।
दामाद को भी लगता था कि सही दुकान सेलेक्ट की है।
पत्नी भी पूरी ठसक के साथ कहती थी - देखा, कितनी एका है हमारे
मोहल्ले में।
सुबह का नाश्ता शर्मा जी के घर तो लंच भाटिया साहब की बैठक में। शाम की चाय पर
श्रीवास्तव की बुकिंग है।
डिनर पर त्रिवेदी जी ने मट्टन-चिकन अपने हाथ से बनाया है। पूछ गए थे कि बोतल का
शौक है कि नहीं। लेकिन त्रिवेदी जी डांट खा गए - ख़बरदार जो गंदी चीज़ का नाम लिया तो।
हमारा जवाई कोई शराबी थोड़े है। और हां सिगरेट के धुएं से भी एलर्जी है उसे। ज़िक्र करने
से भी खांसी शुरू हो जाती है।
इसी तरह हफ़्ता गुज़र जाता था। कभी इस घर तो कभी उस घर।
वो बात दूसरी थी कि बेचारे दामाद लोग सुलभ-शौचालय के पीछे वाली गली में छुप-छुप
कर सिगरेट पीते रहे। एक दिन एक दामाद जी को साले साहब मिल गए। वो भी धुआं उड़ा रहे थे।
हमें याद है एक दामाद जी चोरी-चुपके बार में घुस गए। वहां उसकी मुलाक़ात ससुर जी
हो गयी। दोंनो एक-दूसरे को देख सकपका गए। समझौता हुआ कि मुंह बंद रखना है।
अब तो सब खुले आम है। दामाद जी आये हैं तो बोतल पार्टी तो बनती ही है। और मुर्गे-शुर्गे
के बिना तो बोतल का क्या मज़ा।
हमे ये सब वृतांत इसलिये बता रहे हैं कि हमें इस सुख से वंचित तो नहीं रखे गए बल्कि
हालात ही कुछ ऐसे बने कि वंचित रहना पड़ा। दरअसल
हमारा मोहल्ला और ससुराल का मोहल्ला जुड़ा हुआ था। दूरी बस इतनी कि अगर हम अपने
घर से छक्का मारें तो ससुराल में गेंद कैच हो जाए।
हमें पहली नज़र में हीससुराल की गली वालों ने पहचान लिया था - अच्छा, ऐ मुंडा है। ऐ ते हरदम
आवारागर्दी करदा रहेंदा है।
इसीलिए हम जब भी उस गली में गए न किसी ने नमस्ते की और न सतश्री अकाल। आंख तक उठा
कर देखना तो दूर की बात। बिलकुल वही हिसाब रहा - घर की मुर्गी दाल बराबर।
नोट - नेक सलाह है हमारी। चार मोहल्ले छोड़ कर शादी करना। बहुत इज़्ज़त मिलेगी।
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17-01-2016 mob 7505663626
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Lucknow - 226016
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