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वीर विनोद छाबड़ा
कुछ लोग अजीब होते हैं, जितना समझाओ या गरियाओ। वैसे के वैसे ही रहेंगे।
बरसों पहले की बात है। हमारे एक मित्र होते थे। यों वो अभी भी हैं, बाक़ायदा सलामत।
हमसे मिलने अक्सर आते थे। दस-पंद्रह मिनट बैठे, अख़बार के पन्ने पलटे।
बड़बड़ाये, डीए की आज भी कोई ख़बर नहीं। महंगाई और पॉलिटिक्स पर छोटा सा लेक्चर झाड़ा और चले
गए।
यों तो हमें कोई परेशानी नहीं थी,
लेकिन एक आदत बड़ी ख़राब थी उनकी। बात हमसे करते होते थे और कनखियों
से देखते हमारी पत्नी की ओर। उस वक़्त उनके चेहरे पर गर्वीली सी मुस्कान भी तैरा करती
थी, जैसे क्या कद्दू में तीर मारा है। असल में उनका आशय यह होता था कि उनके कमेंट्स
पर हमारी पत्नी का क्या रिएक्शन होता है।
यद्यपि उस समय हमारी पत्नी हम लोगों की बातचीत से बाख़बर निर्विकार भाव से दाल या
चावल बीनती होती थी। छोटा सा दो कमरे का घर था, एक कमरा स्टोर-कम-बैडरूम
और दूसरा ड्रॉइंगरूम-कम डाईनिंग रूम। बेचारी जाए तो जाए कहां? और फिर हमें तो अपनी
पत्नी पर पूर्ण विश्वास था।
मित्र की कनखियों से गोली मारने की इस आदत से दूसरे मित्र भी परेशान रहते थे। सब
झेला करते थे उन्हें।
एक दिन हमें गुस्सा आ गया। मित्र की आदत सुधारनी ही पड़ेगी।
हमने उन्हें कहा - यार, या तो तू हमसे बात कर ले या हमारी पत्नी
की ओर मुख़ातिब हो जा।
हमारी टिप्पणी पर वो खिसिया गए। लेकिन पत्नी पता नहीं किस दुनिया में खोई आलू छीलने
में व्यस्त रही।
बहरहाल, मित्र हमसे मुख़ातिब हो गए। लेकिन असहज से रहे।
कुछ दिन तक नहीं आये। फिर आना शुरू हो गए। इस बार उन्होंने हमारी पत्नी जी को नमस्कार
किया और हमारी और फिर हमसे मुख़ातिब हो गए।
बरसों बीत चुके हैं। मित्र अब भी आते हैं।
आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा चढ़ चुका है।आते ही पहला प्रश्न होता है - और भाभी जी, बाल-बच्चे वगैरह तो
ठीक हैं।
हम भी मुस्कुरा देते हैं - बुला दें।
वो हंस देते हैं।
चोर चोरी से जाये, हेरा फेरी से नहीं।
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14-01-2016 mob 7505663626
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