-वीर विनोद छाबड़ा
बंदे ने जब होश संभाला था तो उसने अपने माता-पिता को उनके माता-पिता
के चरण-स्पर्श करते देखा। देखा-देखी बंदा भी वैसा ही करने लगा।
बंदा न हिंदू जाने और मुस्लिम- किरिस्तान। बड़े हैं तो उनके भी
पैर छूने हैं। माता-पिता ने तो बस इतना ही कहा, अच्छा बच्चा बन कर
दिखाओ। चिट्ठीपत्री लिखनी सीखी तो सर्वप्रथम चरण-स्पर्श लिखा।
जब घर से बाहर दुनिया में कदम रखा तो पता चला कि कौन हिन्दू, कौन मुसलमान। हाथ यंत्रवत
पांव छूने को बेताब। ये जज़्बा आज भी कायम है।
नई पीढ़ी आ गयी है। अब दंडवत होकर चरण स्पर्श की प्रथा पुरानी
पड़ चुकी है। तनिक दायां कंधा झुकाया। बस, हो गया प्रणाम। इधर मोगैंबो भी खुश हो गया।
लेकिन इकीसवीं सदी के युग में दकियानूस अभी बहुत हैं। बंदा अपने
मित्र के घर गया। बहु ने पैर छुए। सास-ससुर ने भी पैर आगे बढ़ा दिए। बेचारी सुबह से
दसवीं बार यह कवायद कर चुकी है। कोख़ में बच्चा भी है। न-नुकुर करती है। सास आंखें तरेरती
हुई लथाड़ती है। बहु हो बहु की तरह रहो।
बंदे के एक और दकियानूसी मित्र हैं। उनकी बहु के पिता का स्वर्गवास
हुआ। बंदा भी अफ़सोस करने उनके साथ बहु के मायके चला गया। कुछ देर बाद चलना हुआ। लेकिन
मित्र हिला नहीं। उल्टा बंदे का हाथ पकड़ कर बैठा लिया। और वो तब हिला जब दुपट्टे से
आंसू पोंछती बहु महिला कक्ष से बाहर आई और दंडवत हो कर विधिवत वंदना की। मित्र उठे।
बहु की ओर देखा तक नहीं। आशीर्वाद भी नहीं दिया। और चल दिए।
बंदे ने मित्र को हज़ार गालियां सुनायीं। कम से कम यह तो देखा
लिया होता कि बहु के पिता का स्वर्गवास हुआ है। बेचारी शोक में है। मगर मित्र हंसते
रहे। तुम ज्यादा पढ़े-लिखे लोग संस्कार नहीं समझोगे। ये हमारे समाज की संस्कृति है, रिवाज़ है। चाहे दुःख
हो या सुख इन्हें निभाना तो पड़ेगा।
ये चरण-छुआई की रस्म दफ्तरों में भी भरपूर पाई जाती है। प्रशासनिक
सीट पर तैनात बंदे का अधिकारी मित्र तो बाकायदा जूते-मोज़े उतार इस अंदाज़ में बैठता
है कि चारण भक्तों को तकलीफ न हो और वो भी बद्दस्तूर अपना काम करता रहे।
चरण स्पर्श बड़ों को आदर देने का सूचक है, सुंदर भाव है। इसमें
कोई बुराई नहीं। लेकिन आज सब उल्टा-पुल्टा हो रहा है। व्यक्ति का कद छोटा और पद का
कद बड़ा हो गया है। छोटे के पांव बड़ा छू रहा है! स्पष्टीकरण साथ चलता है। अरे, तो क्या हुआ? काम कराना है तो यह
करना ही होगा। चार एक्स्ट्रा लीव मिल गयी और दिल्ली का टूर भी। तुम समझो इसे चापलूसी।
चरण स्पर्श की पवित्रता नष्ट होती है तो होने दो। तुम बैठो यहीं और गधे की तरह काम
करो।
चारण-भक्ति करते हुए फोटो खिंचवाना भक्तगण का नया शौक है। दाढ़ी
बढ़ा कर तीस साल का बंदा ज्ञानी बाबा हो रहा है और सिक्सटी प्लस वाला अज्ञानी बाबाजी
के पांव छू रहा है। हर हर बाबा। हर हर राधा। संख्या बढ़ती ही जा रही है। चरण स्पर्श
की सुंदर अवधारणा नष्ट हो रही है।
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नोट - प्रभात ख़बर दिनांक १८ जनवरी २०१६ में प्रकाशित।
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सही कटाक्ष!!
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