-वीर विनोद छाबड़ा
चौबीस घंटे बिजली-पानी। चौड़ी सड़कें और ड्रेनेज-सीवरेज का बेहतरीन सिस्टम। गज़ब का
सिविक और ट्रैफिक सेंस। आवागमन के ढेर साधन। नर्सरी से लेकर तमाम प्रोफेशनल डिग्रियों
की पढ़ाई के आला इंतज़ाम। शहर की इसी बेहतर ज़िंदगी की ख़ातिर बंदे ने कस्बाई दुनिया छोड़
दी।
मगर कुछ ही दिनों में सपने ढह गये। एक एलआईजी कॉलोनी में छह हजार माहवार किराये
पर कोठरीनुमा दो कमरे का मकान किराये पर मिला। बिजली-पानी का डेढ़ हजार अलग से। शर्त
है कि नॉनवेज बनाओ तो एक बड़ी कटोरी मकान मालिक को भेजना ज़रूरी। बंदे को मंज़ूर है। रोज़
मुर्गा हांडी पर तो चढ़ता नहीं है!
घर से चौराहा दो सौ मीटर दूर है। गड्डों में से गुज़रती टूटी-फूटी सड़क। दुल्हन की
तरह बेहद संभल-संभल कर पैर रखो। चौराहे पर गज़ब हाल है। बसों और ऑटो में ठूंसे लोगों
को देखकर बाड़े में ठूंसी भेड़-बकरियां याद आयी। बामुश्किल आटो मिला। किराया डबल। बंदे
ने घ़ड़ी देखी। ओह, पंद्रह मिनट लेट! जुगाड़ से मिली नौकरी और पहला दिन! मरता क्या न करता। चल भाई।
नामी स्कूल में एडमिशन के लिए गर्भ धारण करते ही एप्लाई करना होता है। माता-पिता
को भी अंग्रेजी का ज्ञान परम आवश्यक है। स्कूटर-बाईक के साथ कार और एक लाख रुपये महीना
इनकम। बंदे ने बेटी को हिंदी मीडियम अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिल कराया।
एक बार बंदे को सर्दी-जुकाम ने पकड़ लिया। सरकारी अस्पतालों की भीड़ देख कर दिल घबराया।
प्राईवेट अस्पताल पहुंचे। लंबे-चौड़े टेस्ट पर पांच हज़ार का चूना लगा। दो मर्ज और निकाल
दिए। एक का इलाज अमरीका में तो दूजे का जापान में होना बताया।
जाम का तो हाल मत पूछो। ट्रेन या बस पकड़नी हो तो कम से कम दो घंटे पहले निकलें।
एक बार मैयत में इतना लेट पहुंचा कि राख़ के दर्शन नसीब हो सके।
बंदे के सामने एक हादसा हुआ। घंटे बाद पुलिस पहुंची। खाना-पूर्ती करके घायल को
अस्पताल पहुंचाया। डाक्टर झल्लाया कि यहां ज़िंदों को देखने की फुरसत नहीं और तुम मरे
को ले कर आ गये।
यह शहर पढ़े-लिखे लोगों का है। मगर किसी में सिविक सेंस नहीं है। ‘हल्का’ होना है तो किसी की भी दीवार को गीला करने की आज़ादी है। ऐसा नज़ारा ‘खंबे के सहारे हल्के
होने वाले’ की याद दिला गया।
यहां कई शापिंग माल और सिनेप्लेक्स हैं। ठंडा-ठंडा, कूल-कूल। एक बार जाओ, समझो न न करते हज़ार-दो
हज़ार ढीले हो गए। कहने को बिजली की आपूर्ति निर्बाध है। मगर हर घंटे बाद दो घंटे गायब
भी। पगार तो पंद्रह दिन में ख़त्म हो जाती है। बाकी दिन सियापा।
बंदा पागल हो गया। कई दिन मेंटल ट्रीटमेंट में रहना पड़ा। जुगाड़ लगा कर वो अपने
कस्बेनुमा शहर लौटा। मगर यहां एक और सदमा इंतज़ार करता मिला। अब यहां भी शापिंग माल
और मल्टीप्लेक्स उग आये हैं। छायादार दरख़्त गायब हैं। सड़कें पहले की तरह ही संकरी और
टूटी-फूटी हैं। वाहनों के साथ हादसों की संख्या भी बढ़ी है। सरकारी अस्पतालों से डाक्टर
गायब हैं। प्राईवेट अस्पताल खूब फल-फूल रहे हैं।
बंदा चकरा गया। मेंटल ट्रीटमेंट के लिए उसे फिर उसी बड़े को शहर रेफर कर दिया गया।
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Published in Prabhat Khabar dated 04 Jan 2016
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