Sunday, January 3, 2016

सर पे टोपी...


- वीर विनोद छाबड़ा
कई ऐब थे हममें। जैसे जैसे ज़िंदगी की अहमियत समझ में आई तो पहले दारू छोड़ी और फिर सिगरेट। नॉन वेज तो इसी साल फरवरी में छोड़ा।
इसी तरह हमने अपने वस्त्रों को भी बहुत इज़्ज़त दी है। जब तक उनमें दम रहा, खूब पहना। चाहे वो अंडरवियर रहा हो या बनियान या स्वेटर। एक फटा रुमाल इधर तीन-चार दिन से नहीं दिख रहा।
शायद मेमसाब ने इधर-उधर कर दिया है। पूछा नहीं डर के मारे। लंबा-चौड़ा भाषण सुनना पड़ेगा।

तस्वीर में दिख रही गर्म टोपी भी कई बरसों से हमारे सिर पर है। मिलेनियम ईयर २००० में मेमसाब लायीं थी मेरे लिए। तब हमारे सिर पर आज के मुक़ाबले ठीक-ठाक खेती-बाड़ी थी। तब से इसे ताज की तरह हम धारण करते हैं। अक्सर हमें गाना भी याद आता है - सर पे टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल...

हमें याद है उस रात हमने इस टोपी को पहली मर्तबा सिर पर रखा था। दोस्तों संग लखनऊ-कानपुर रोड पर निकले थे, किसी ढाबे में नया साल मनाने के लिए। भयंकर धुंध थी। रास्ता नहीं दिख रहा था। तभी एक पीली बत्ती दिखाई दी। यह एक बस थी। हम उसी के पीछे-पीछे ड्राइव करते रहे। हाईवे पर हम पहली बार ड्राईव कर रहे थे। एक जगह बस रुकी। हम भी रुक गए। नवाबगंज था वो। एक ढाबा दिखा। वहीं बैठ गए। मोबाईल का ज़माना नहीं था और लैंडलाइन ख़राब था। घर में ख़बर नहीं कर सके। वहीं ढाबे वाले ने बताया था कि सरकार ने तीन आतंकवादी छोड़ दिए हैं और कंधार में फंसे १५० भारतीय वापस आ रहे हैं।

हम भी सुबह घर वापस आये। घर में सब परेशान थे। बहुत डांट पड़ी थी, मेमसाब से भी और बच्चों से भी। कुछ हो जाता तो क्या होता?

वो दिन है और आज का, हम कोई रिस्क नहीं लेते। नए साल की रात बहुत शांति से घर पर बिताते हैं। वो बात दूसरी है कि सब सो जाते हैं। हम अकेले ही कई तरह के ऊनी वस्त्रों और स्वेटरों में खुद को लपेट लेते है। फिर उसके ऊपर कई साल पुरानी एक पटरे वाली शाल ओढ़ कर टीवी के सामने बैठ जाते हैं और चैनल पे चैनल बदलते हैं। हर बार सिर पर यही टोपी भी रही।

आज भी यही टोपी है। अगले साल भी होगी और उसके अगले साल भी...तब तक रहेगी, जब तक है जां।

यह टोपी कई बार खोई भी। लेकिन अगले ही दिन मिल गयी। कभी हमने इसे खोज लिया तो कभी दूसरे हमें खोजते हुए हिक़ारत से पकड़ा गए - आपकी यह टोपी हमारे घर पर छूट गयी थी। हमारे घर में तो ढाई दर्जन टोपियां हैं, एक से बढ़ कर एक।


हम रात सोते हैं तो इसी टोपी को धारण करके। सुबह उठते हैं तो ग़ायब मिलती है। बाद में जब रजाई तह करते हैं तो मिल जाती है।

इसी टोपी के दो साल बाद एक और टोपी भी ली थी। वो भी सेवा कर रही है। बारी-बारी से पहनता हूं। एक पिताजी की टोपी भी है- फ़र वाली कश्मीरी कैप। निशानी के तौर पर रखे हुए हुए हूं। कभी-कभी उसे भी सिर पर रख लेता हूं। आईने के सामने खड़े होकर देखता हूं यह जानने के लिए कि क्या उनकी तरह दिख रहा हूं?
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