-वीर विनोद छाबड़ा
सुबह मुंह-अंधेरे उठ कर सबसे पहला काम होता है, चूहेदानी में फंसे
मूषक जी महाराज की विदाई।
मूषक और जी! अरे भाई गणेश जी की सवारी है। इज़्ज़त तो देनी है। और फिर गणेश जी को
नाराज़ भी नहीं करना है। वही तो सद्बुद्धि देते हैं।
विदाई से पहले मूषक जी से चंद बातें भी करनी ज़रूरी हैं। प्रोटोकॉल भी आख़िर कोई
चीज़ है। घर आये मेहमान को बिना स्वागत-सत्कार किये बाहर कर देना, गंगा-जमुनी तहज़ीब की
बेइज़्ज़ती है। भारतीय संस्कृति के भी विरुद्ध है।
कब आये? अंदर रखी रोटी का टुकड़ा कतर लिया?
लीजिये, एक ब्रेड पीस का मुलायम टुकड़ा कतरिये। तब तक जूता पहन लूं।
फिर हम चूहेदानी उठाते हैं। झूले की तरह झुलाते हैं। मूषक भाई की सवारी चली पम
पम पम.…
ध्यान रखते हैं कोई मिल न जाये। वरना कमेंट सुनने पड़ते हैं.…बड़ा दुबला है.…घर में खाने पीने को
कुछ है नहीं क्या?...इतनी भी महंगाई नहीं है यार.…खुद भी खाओ और गणेश जी की सवारी को भी.…
हम घर के सामने से गुज़र रही चार लेन वाली सीतापुर रोड पार करते हैं। वहां एक नाला
है। हरदम कूड़े से भरा रहता है। वहीं हम मूषक जी को विदा करते हैं।
विदा करने से पूर्व अच्छी तरह जांच लेते हैं। कोई बिल्ली मौसी घात लगा कर न बैठी
हो। इत्मीनान करने के बाद ही चूहेदानी का पट खोलते हैं।
पट खुलते ही मूषक जी लंबी छलांग लगाते हैं। और फिर पलट कर हमें कुछ क्षण तक घूरते
हैं। मानो चिढ़ा रहे होते हैं - बहुत खुश होने
की ज़रूरत नहीं
बच्चू। तैयार रहना लौट कर आ रहा हूं।
हमें अहंकार होता है। हम हंसते हैं। यह मुंह और मसूर की दाल। मियां, घर से पांच सौ मीटर
दूर हैं आप। और बीच में भारी वाहनों का लगातार आवागमन। सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना
हुई।
यों मूषक जी के संदर्भ हम अपना अब तक इतिहास जब भी खंगालते हैं तो पाते हैं मूषक
जी से हमारा पैदाइशी रिश्ता है। खुन्नस से भरपूर। कभी हम आगे तो कभी मूषक जी। और पीछे-पीछे
चूहेदानी लेकर हम। बचपन से जवानी तक रेलवे स्टेशन के सामने रहे। पार्सल ऑफिस से चहल-कदमी
करते हुए पांच-पांच किलो के भारी-भरकम खलिहानी मूषक महाराज आते थे। बड़ी-बड़ी बिल्लियां
भी डर कर निकल भागीं। बत्ती विभाग में नौकरी मिली। वहां भी ऐसे ही मजबूत किस्म के मूषक।
फाईलों की स्पाईन पर लगी लेई के बहाने फाईलें चट कर जाते। दराजों में रखा खाने का कोई
भी सामान कभी भी महफूज़ नहीं रहा। इंदिरा नगर आये। खेतों और फलों के बगीचों को उजाड़
कर बने मकान। किसान मुआवज़ा लेकर चले गए। मगर मूषकगण और वानर वहीं रह गए।
बहरहाल, एक दिन हमें संदेह हुआ। क्या मूषक जी वाकई लौट आते हैं?
संदेह का निवारण ज़रूरी होता है। वरना खोपड़ी भन्नाई रहती है। न दिन में चैन और न
रात में नींद आये।
हमने एक मित्र के सुझाव पर प्रयोग किया। एक दिन क़ैदी मूषक जी पर हमने पक्का लाल
रंग छिड़क दिया। ऐसा हमने कई दिन तक किया। देखें मूषक जी वाकई लौटते हैं या महज़ हमें
डराते हैं।
हमने कई दिन तक नज़र रखी। मगर हमें लाल रंग वाले एक भी मूषक जी लौटे हुए नहीं दिखे।
तब हमें इत्मीनान हुआ कि मूषक जी चूहेदानी से बाहर निकल कर हमें चिढ़ाते नहीं हैं बल्कि
आज़ाद करने का शुक्रिया अदा करते हैं।
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19-01-2016 mob 7505663626
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