Friday, January 8, 2016

आज़ाद प्रेस।

- वीर विनोद छाबड़ा
जब कभी किसी प्रिंटिंग प्रेस पर नज़र पड़ती है तो एक पुराना वाकया याद आता है।
हमने इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में अपने कैरियर में तीन साल स्टेशनरी में गुज़ारे हैं। कागज़-कलम-दवात से लेकर टेबुल ग्लास और झाड़न-ब्लॉटिंग पेपर भी परचेज़ और सप्लाई किया है।

प्रिंटिंग का काम भी हमारे ही ज़िम्मे था। बजट का सीजन था। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का बजट अलग से छपता था। एक नए प्रिंटर ने टेंडर डाला। रेट भी सबसे कम दिए। लेकिन आर्डर फ़ाईनल करने से पहले ज़रूरी था कि मुआइना कर लिया जाए।
हम अपने एक अधिकारी के साथ निकले। फर्म के दिए एड्रेस पर पहुंचे। कोई प्रेस नहीं दिखा। आस पास से पूछताछ की। किसी ने कहा इस गली तो किसी ने उस गली का रास्ता दिखाया। खूब दौड़े। पूरा डालीगंज छान मारा। इसका मतलब फर्म फ़र्ज़ी है। लेकिन हमारे अधिकारी हार मानने वालों में से नहीं थे - नहीं, एक प्रयास और कर लिया जाए।
वो मैले-कुचैले वस्त्रों से सुसज्जित कंचे खेल रहे बच्चों के झुंड से मुख़ातिब हुए- आज़ाद प्रिंटिंग प्रेस कहां है?
एक बच्चा आगे आया। उसकी सवालिया आंखें पूछ रहीं थीं - क्या होता है प्रिंटिंग प्रेस?
हमारे अधिकारी ने हवा में प्रिंटिंग प्रेस की आकृति बनाई और कहा - ऐसी होती है प्रिंटिंग प्रेस।
लड़के की आंखें चमकीं। उसने पीछे आने का इशारा किया। लड़के की खेलने कूदने की उम्र। बहुत तेज रफ़्तार से इस गली से उस गली उड़ता फिर। गली भी कहीं संकरी और कहीं चौड़ी।
हमें उसके साथ रेस लगानी पड़ी। सांस फूल गयी। हमारे अधिकारी भनभनाये - इतनी पतली गली में प्रिंटिंग की मशीन गयी कैसे होगी?
काफ़ी देर बाद अंततः लड़के के पांव थमे एक जगह।
हम लोगों की जान में जान आई।
लड़के ने एक जगह की और ईशारा किया - वो रही प्रेस।

हमने उधर देखा तो पहले तो होश उड़ गए। फिर हंसी भी बहुत आई। वो प्रिंटिंग प्रेस नहीं था, इस्त्री करने वाले की दुकान थी। एक बड़ी सी टेबुल थी और एक वृद्ध लकड़ी के कोयले वाली लोहे की प्रेस से किसी की पतलून प्रेस कर रहा था।
बहरहाल, हमने उससे प्रिंटिंग प्रेस के बारे में पूछा तो उसने सही-सही पता बता दिया।
हमें राहत मिली। हम वहां थोड़ी दिक्कत के साथ पहुंच तो गए, लेकिन वहां का नज़ारा देख फिर हमारे होश उड़ गए। वहां एक छोटा सा फटापुराना बोर्ड टंगा था - आज़ाद कबाड़ी वाला।
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