-वीर
विनोद छाबड़ा
रावलपिंडी
में २३ अगस्त १९२३ को जन्मे शंकरदास केसरीलाल उर्फ़ शैलेंद्र अपने दौर के बहुत प्रसिद्ध
गीतकार थे और अनन्य मित्र राजकपूर के अलावा तमाम निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद।
अच्छी भली ज़िंदगी चल रही थी। मगर उन्हें लगता था कि सिर्फ गाने लिखने से उनके भीतर
के सृजक की प्यास नहीं बुझने वाली। क्यों न फिल्म बनाई जाए?
हमदर्दों ने समझाया - ये सपनों की नगरी है,
प्यारे। जितने चाहे देखो,
एक से बढ़ कर एक हसीन सपने,
बिलकुल मुफ़्त में। एक ठोकर पड़ी और टूट गए। गाने लिखना तुम्हारा
काम है, यही करो।
और फिर गीतकार की हैसियत ही कितनी होती है?
लेकिन
निर्माण के कीड़े का ज़हर शैलेंद्र जी के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह असर कर चुका था। उन्हें
सुप्रसिद्ध लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की रचना 'मारे गए गुलफ़ाम' बहुत
पसंद थी। इस कहानी को चुनने की एक वजह यह भी थी कि इसमें बिहार की पृष्ठभूमि थी और
शैलेंद्र जी के पुरखे बिहार से थे। बासु भट्टाचार्य निर्देशन के लिए तैयार थे ही। अनन्य
मित्र राजकपूर भी हां बोल चुके थे। बल्कि कभी-कभी याद भी कराते थे कि पुल्किन तुम्हारी
फिल्म का क्या हुआ। राजकपूर शैलेंद्र को प्यार से कभी पुल्किन और कभी कविराज भी पुकारते
थे।
WaheedRahman&RajKapoor |
शैलेंद्र
जी ने बैंक खाली कर दिया। लेकिन, बाकी रकम? वादा
करने वाले दोस्त पलट गए। अभिन्न मित्र राजकपूर महंगी फ़िल्में बनाते थे। जितना कमाया
सभी अगली फिल्म में लगा दिया। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। दरअसल,
जिस सब्जेक्ट पर शैलेंद्र फ़िल्म बनाने जा रहे थे,
उसमें रिटर्न नामुमकिन था। मजबूर होकर भारी ब्याज पर मार्केट
से कर्ज़ लिया। उन्हें पक्का यक़ीन था कि फ़िल्म अच्छा बिज़नेस करेगी और वो पाई-पाई चुका
देंगे।
आख़िर
फ़िल्म फ्लोर पर जाने के लिए तैयार हो गयी। राजकपूर तो मुद्दत से तैयार थे। लेकिन फिर
भी एक औपचारिक 'हां'
तो ज़रूरी थी। शैलेंद्र पहुंचे राजकपूर के बंगले। राजसाहब को
वादा याद कराया। उन्होंने कहा, हां, बिलकुल
याद है। मगर पहले यह तो बताओ प्रोजेक्ट क्या है?
बजट कितना है? मुझे फीस कितनी दोगे?
साईनिंग एमाउंट कहां है?
एग्रीमेंट फार्म कहां है?
Raj Kapoor |
शैलेंद्र
जी के हाथों से तोते उड़ गए। मैं जो सोच कर आया था वैसा तो यहां कुछ नहीं घटा। बल्कि
सवाल पर सवाल? बहरहाल,
उन्होंने ने जैसे-तैसे हिम्मत बटोरी - ये रहा एग्रीमेंट फार्म।
जो आपकी फीस हो इसमें भर दीजिए। और ये रहा आपका साईनिंग एमाउंट। यह कहते हुए शैलेंद्र
जी ने जेब में हाथ डाला। पांच-छह हज़ार... जितना भी जेब में पैसा था,
निकाल कर रख दिया।
राजकपूर
ने शैलेंद्र जी को सर से पांव तक घूर कर देखा। फिर मुस्कुराए। उनके कंधे पर हाथ रखा।
एक रुपया उठाया - पुल्किन, यह रहा मेरा साईनिंग एमाउंट और यही मेरी फीस भी है। यह कहते हुए राजकपूर ने उन्हें
सीने से लगा लिया। शैलेंद्र जी के गले से आवाज़ नहीं निकली। सिर्फ आंसू थे आंखों में।
आगे इतिहास गवाह है कि राजकपूर ने ‘तीसरी कसम’ में जो पावरफुल परफारमेंस दी थी वो उनके कैरीयर की सर्वश्रेष्ठ में से एक थी।
दो राय
नहीं कि 'तीसरी
कसम' बेहतरीन
फ़िल्म थी। सुपर्ब गीत-संगीत - चलत मुसाफ़िर मोह लियो... दुनिया बनाने वाले... पान खाएं
सैंया हमार... सजनवा बैरी होय गए हमार...सजन रे झूठ मत बोलो... क्रिटिक्स ने बहुत सराहा।
लेकिन बाक्स ऑफ़िस पर नाकाम रही। रिपीट वैल्यू नहीं थी।
शैलेंद्र
जी बुरी तरह टूट गए। बाजार का उधार चुकाना मुश्किल हो गया। इसके लिए किसी ने निर्देशक
बासु भट्टाचार्य को ज़िम्मेदार ठहराया कि उन्होंने बहुत धीमी गति से फिल्म बनायी। कई
सीन बेवज़ह री-शूट किये। राजकपूर को भी दोष दिया गया कि शूटिंग की डेट भी देने में कंजूसी
की। नतीजा फिल्म चार साल में पूरी हुई। जितने मुंह उतनी बातें।
कर्ज
के इस भंवर से निकलने कोई रास्ता नहीं दिखा शैलेंद्र जी को। गहरे अवसाद में चले गए।
अंततः १४ दिसंबर १९६६ को वो दुनिया छोड़ गए। सिर्फ ४३ साल उम्र थी उनकी। संयोग से उसी
दिन उनके प्रिय मित्र राजकपूर का जन्मदिन भी था। उन्होंने कहा कि मेरी आत्मा चली गई।
वो इतने दुखी हुए कि आगे से जन्मदिन मनाना छोड़ दिया।
शैलेंद्र
जी मौत भी 'तीसरी
कसम' को लिफ़्ट
नहीं कर सकी। कुछ बड़े शहरों में ज़रूर कुछ ठीक चली। ये कंसोलेशन ज़रूर रहे कि 'तीसरी कसम' ने १९६६
की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का नेशनल एवार्ड जीता और फिल्म इतिहास में इसे क्लासिक कर दर्जा
दिया गया।
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Published in Navodaya Times dated 29 June 2016
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