- वीर विनोद छाबड़ा
पढ़ना अच्छी बात है। कुछ पढ़ाकू ख़रीद कर पढ़ते हैं और कुछ लाइब्रेरी से उधार लेकर।
कुछ मित्रों से मांग कर। और कुछ खरीदते भी हैं और मित्रों से आदान-प्रदान करते हैं।
सब भला है। समस्या तब पैदा होती है जब सयाने किताब ले तो जाते हैं, लेकिन वापस करना भूल
जाते हैं। याद दिलाने पर वो क्रोधित होते हैं। अमां किताब ही तो है, कोई खजाना तो नहीं।
हमें कई साल पहले की एक घटना याद है। हमारे घर डाक से उर्दू के बेशक़ीमती अदबी रिसाले बहुत आते थे। इनमें पिताजी की कहानियां भी छपी होती
थीं। कई हमारे घर को पुस्तकालय और वाचनालय समझ कर कुछ लोग घंटों बैठे रहते थे।
एक दिन पिताजी की गैर-मौजूदगी में एक मित्र आये। सरकारी गुलिस्तां कॉलोनी में रहते
थे। उसी दिन डाक से एक रिसाला आया था। उन्होंने उसे खोला। उल्टा-पलटा और बता कर साथ
ले गए। उनकी आदत लौटाने की नहीं थी।
रात को पिताजी घर लौटे। उन्होंने अपने कमरे की हालत देखी। किताबें-रिसाले इधर से
उधर थे। फ़ौरन समझ गए कि कोई आया था। मां ने बताया कि फलां आये थे और एक रिसाला भी ले
गए हैं। पिताजी का पारा फ़ौरन सातवें आसमान पर पहुंच गया। हज़ार दफे समझाया है कि मेरी
गैर-हाज़िरी में किसी को हाथ न लगाने दिया करो।
उन दिनों टेलीफोन की सुविधा नहीं थी। पिताजी तो मानों भूख हड़ताल पर बैठ गए। सारा
कसूर मां पर डाल दिया। मां को बचाने और पिताजी को मनाने का एक ही तरीका था कि हम आठ
किलोमीटर दूर उनके मित्र के घर रिसाला वापस लेकर आएं। कड़ाके की ठंड थी। हमने एक पड़ोसी
मित्र को साथ लिया और दौड़ा दी साईकिल। रात नौ बजे निकले और ग्यारह बजे लौटे। सर्दी
में भी पसीना पसीना हो गए। पिताजी को तसल्ली मिली।
हमारे पिताजी का स्वर्गवास हुआ तो मानो लूट ही मच गई। अफ़सोस के बहाने उनके शुभचिंतक
आये और चलते-चलते एक-आध पुस्तक ज़रूर ले साथ ले गए। पढ़ कर वापस दे देंगें। कई कीमती
शब्दकोष भी चले गए। जब सहिष्णुता जवाब दे गई तो हमने करामत हुसैन मुस्लिम गर्ल्स डिग्री
कॉलेज को उनकी जमा पुस्तकें डोनेट कर दीं।
हमारे मित्र हैं केके चतुर्वेदी जी। अनेक पुस्तकें हैं उनके भंडार में। जब कोई
पुस्तक मांगता है तो डायरी में नोट कर लेते हैं। समय समय पर रिमाइंड कराते रहते हैं।
कभी कभी गुस्सा होकर चेतावनी भी देते हैं।
हमने नौकरी में रहते सेवा-संबंधी अनेक पुस्तकें खरींदीं थीं। काम के लिए अलमीरा
से बाहर निकालीं। इस बीच उच्चाधिकारी का फ़ोन आया। लपक कर जाना पड़ा। लौट कर आये तो टेबल
से पुस्तक ग़ायब। ऐसा तीन-चार बार हुआ। रिटायर हुए तो बची हुई पुस्तकों पर अधिकार जमाने
के लिए कई सहकर्मी झपट पड़े।
एक ज़माने में बर्थडे हो या विवाह,
पुस्तक भेंट करने चलन था। इस स्वस्थ परंपरा को हमने कई साल तक
चलाया। समय बदल गया। मित्रों ने न्यौता देना बंद कर दिया। इससे पहले की हम असामाजिक
प्राणी घोषित होते, हमने इस परंपरा को तिलांजलि दे दी।
एक अच्छी बात है कि पुस्तकें खरीदी जाती हैं, जब कभी पुस्तक मेले
लगते हैं। लेकिन फ़ैशन के तौर पर। ड्राइंगरूम में सजावट के लिए रखे बुक शेल्फ को भरने
के लिए।
हां, भेंट स्वरूप मिली पुस्तक का आनंद आज भी कुछ अलग है। अलबत्ता, यह बात अलग है कि कुछ
लोग इस भेंट को फ्री का समझ कर भी आनंदित होते हैं।
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07 June 2016 mob 7505663626
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Lucknow - 226016
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