Tuesday, June 28, 2016

हम भी आदी हो गए हैं

-वीर विनोद छाबड़ा 
आज किसी भी प्रदेश की राजधानी को झेलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। आये दिन प्रदेश के दूर-दूर कोनों से आये हज़ारों मज़दूर और कर्मचारी चीख रहे हैं - अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है...जब तक भूखा इंसान रहेगा धरती पे तूफ़ान रहेगाहर जोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है...इंकलाब, ज़िंदाबाद...मगर न कोई सुनने वाला और समझने वाला। भीड़ बेकाबू हो गई...पुलिस गुस्सा हो गई...लाठी चार्ज।
नतीजा घंटो का जाम। शहर के ट्रैफिक जुगराफिया भी कुछ इस किस्म का है। एक जगह जाम लगा नहीं कि साइड इफ़ेक्ट गली-गली तक पहुंच गए। ऊपर से बिजली की आवाजावी, पीने के पानी की किल्लत, नाकाफ़ी स्वास्थ्य सुविधाएं, बजबजाती नालियों, उफनाते सीवर, जगह-जगह फैली गंदगी और अवैध कब्ज़े। आम आदमी की ज़िंदगी पूरी तरह बदहाल और नरक बन गई। 
भरी दोपहरिया में स्कूल से लौटते मासूम बच्चे बिलबिला उठते हैं। एक नहीं कई एम्बुलैंस भीड़ में फंस गईं। नाना प्रकार की व्याधियों से पीड़ित कई बंदे बीच रास्ते में दम तोड़ गए। प्रसूता बीच सड़क पर बच्चे को जन्म देने को विवश हो गई। अंतिम यात्रा पर निकले मुर्दे भी कराह उठे - अमां, यहीं किनारे कहीं फूंक दो। जाना तो एक ही जगह है। अब इंतज़ार बर्दाश्त से बाहर है। 
निर्दयी प्रदर्शनकारी आजू- बाजू  से निकलने की कोशिश कर रहे गरीब रिक्शे वालों के पहियों की हवा निकाल देते हैं। स्कूटियों और बाईकर्स की चाबियां निकाल लीं। किसी की ट्रेन छूटी, तो किसी की बस और किसी का प्लेन। कोई परीक्षा देने जा रहा है तो कोई इंटरव्यू। किसी को शादी में और किसी को ग़मी में जाना है। बार-बार न कोई जीता है और न मरता है। छूट गया न 'वन्स इन लाईफ़टाईम' का मौका। सर के बाल नोचो और सरकार को भद्दी गालियां दो। इसके सिवा कोई कर भी क्या सकता है?
प्रशासन के सीने में भी दिल नहीं है। न नेता और न मंत्री, स्थिति को सुलझाने में कोई रूचि लेते नहीं दिख रहा है। सब मांगें नाजायज हैं। मुख्यमंत्री से मिलो या प्रधानमंत्री से। बराक ओबामा तक पहुंच जाओ। सुप्रीमकोर्ट में गुहार लगाओ। दंगा करो या जाम लगाओ या आत्मदाह करो। मेरी बलां से।
प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधि भी खुश हैं। वो यही चाहते हैं। समस्या को भेजो तेल लेने। अगर सब ठीक हो जाए तो नेतागीरी कैसे चमकेगी? इसी बहाने पर्दे के पीछे कुछ फ्लैट और काम्प्लेक्स बन जाएंगे। बच्चों का भविष्य उज्जवल रहेगा।

और प्रदर्शकारियों का भी क्या जाता है? प्रदेश के कोने-कोने से बसों और ट्रेनों में भर कर आये हैं। जेब से किराया देना नहीं, खाना-पीना और ठहरना भी फ्री है। इसी बहाने आउटिंग के साथ-साथ राजधानी घूमना भी हो गया। उनकी वज़ह से ट्रेनों और बसों में अन्य यात्रियों को कोई तक़लीफ़ हुई है तो उनकी बलां से। पहले से पंगु जनसुविधाएं बिलकुल ठप्प हो गईं हैं तो उनकी जूती से।

कुल मिला कर ऐसी पंगु स्थिति पैदा करने और फिर उससे छुटकारा पाने में किसी की रूचि नहीं है। भुक्तभोगी हैं शहर वाले। एक साहब अभी-अभी बता कर गए हैं कि अब तो हम भी आदी हो गए हैं। हड़ताल करो या जाम लगाओ, मेरे ठेंगे से। 
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Published in Prabhat Khabar dated 27 June 2016
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