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वीर विनोद छाबड़ा
हमने सुना था कि कचेहरी में बिना चढ़ावे के कोई काम नहीं होता. बहुत किस्मत वाले
का ही बड़ा मुफ्त में पार होता है. जो नहीं
देता वो आम आदमी की तरह इधर से उधर भटकता ही फिरता है. लेकिन हम सीना ठोंक कर कहा करते
थे, देखना जब कभी मौका पड़ा तो हम बिना दक्षिणा दिए काम करा लाएंगे.
और एक दिन वो मौका आया ही गया. हमने अपने उसी मित्र को साथ लिया जो कहा करता था
कि बिना 'कुछ' दिए काम नहीं करा सकते.
मुझे मकान की रजिस्ट्री करानी थी. यह बात १९९५ की है.
वाकई हम झेल गए. हवा में बात करना आसान है. ज़रा ज़मीन पर उतर कर देखो. तब समझ में
आएगा.
कदम-कदम पर चढ़ावा. स्टाम्प पेड मुहैय्या करने वाला, फिंगर प्रिंट लेने
वाला, मुहर का ठप्पा लगाने वाला और फिर उंगलियों पर लगी स्याही पोंछने वाले तक को दक्षिणा
देनी पड़ी. मुंहजुबानी शुक्रिया अदा करने का तो कोई मतलब ही नहीं है यहाँ पर.
और किस-किस को और किस स्तर तक देना पड़ा, यह बताना मुनासिब नहीं. न्याय और ईमानदारी पर यकीन करने वालों
को कष्ट होगा.
हमारे मित्र ने हमें व्यंग्य से देखा. हम झूठ नहीं बोलते थे. ओ बाबू जी धीरे चलना, बड़े धोखे हैं इस राह
में....
हमें बहुत कष्ट हुआ था। एक स्तर पर जिरह करने कोशिश भी की।
उसने हमारा मुंह यह कह कर बंद कर दिया - यहां बड़ी ईमानदारी से काम होता है। हर
स्टेज का रेट फिक्स है। न एक पैसा कम और न ज्यादा। और आपको ससमय रजिस्ट्री हो जायेगी
.चाहें तो घर पर भी पहुँच जायेगी .लेकिन उसका रेट अलग है. जो बंदा जाएगा उसका आने-जाने
और चाय-पानी का खर्च तो देना ही पड़ेगा न.
ज़िंदगी में कई ऐसे मुक़ाम आते हैं जहां आम आदमी को अपने सिद्धांत ताक पर रख कर ज़लील
होना पड़ता है. उनमें से एक हम भी हैं. इसका मलाल ज़िंदगी भर रहेगा.
इसकी एक वज़ह यह भी है कि हम खुद और हमारा ईश्वर गवाह है कि किसी का काम करने की
एवज़ में एक प्याली चाय भी नहीं पी है,
बल्कि पिलाई है. पूर्णरूप से संतुष्ट करके.
आज भी कभी कभी मिलते हैं. पूछते हैं, यार किस मिटटी के बने हो.
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03-06-2016 mob 7505663626
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