- वीर
विनोद छाबड़ा
एक बड़े
शहर का भीड़ भरा चौराहा। सुबह का नौ बजा है। ठसाठस भरी बस देखते ही पचास बरस की उस भद्र
महिला कर्मचारी का दम घुटता है। उसके चेहरे की झुर्रियों से बहता चिपचिपा पसीना संघर्षपूर्ण
जीवन की दास्तां बयान कर रहा है। आटो के लिए खासी मारा-मारी है। बामुश्किल एक आटो में
जगह मिली। यह सीधा ऑफिस पहुंचाएगा। अक्सर दो-तीन बार बदलना पड़ता है। उसे बहुत ख़ुशी
हुई, जैसे
कोई बड़ा किला फतेह कर लिया। आज वो वक़्त पर आफिस पहुंचेगी और फिर शाम तक वो फाईलों
का हिस्सा बनी रहेगी।
शाम पांच
बजे आफिस बंद होता है। उस महिला को अपने जैसी सैकड़ों महिलाओं के साथ आटो के लिए सुबह
वाली जद्दोज़हद फिर करनी है। आज वो सुबह जैसी लकी नहीे है। खासी धक्का-मुक्की और दो
बार ऑटो बदलने के बाद वो पॉलीटेकनिक चौराहे पहुंची। सांस फूल रही है। शिद्दत की गर्मी
और उमस है। यहां से मुंशीपुलिया महज़ दो किलोमीटर है। लेकिन यहां भी वही ऑटो के पीछे
भागना। जैसे-तैसे वो एक आटो में ज़बरदस्ती घुस गई। बेचारे एक आदमी को नीचे उतरना पड़ा।
घड़ी देखती है। सात बजने को है। वो घर के बारे में सोचती है...राशन-पानी तो पगार मिलते
ही भर लिया था। सब्जी वाला द्वारे पर आ जाता है। थोड़ी महंगी देता है। तो क्या हुआ?
टाईम तो नहीं वेस्ट करना पड़ता बाज़ार जाकर। उसके सपनों की उम्मीदें
और उसका गुरूर दो बेटियां हैं, जो मेडिकल की तैयारी कर रही है। कोचिंग से लौटते-लौटते उन्हें आठ बज जाता है। उसका
पति परचून की छोटी सी दुकान करता है। दस के बाद टुन्न होकर घर आएगा ... अरे,
मुंशीपुलिया आ गया, उसे पता ही नहीं चला। अब यहां से घर बस दस मिनट का पैदल रास्ता।
रात ग्यारह
बज गया चौका-बरतन समेटते। बेटियां अभी टीवी से चिपकी हैं। वो उन्हें डांटती है। कंपीटीशन
की तैयारी कब करोगी?
वो थककर
चकनाचूर हो चुकी है। धम्म से बिस्तर पर गिर जाती है। उसे उन सुखद दिनों की याद आती
है जब परिवहन निगम की 'महिला बस सेवा' के कारण
वक़्त, एनर्जी
और पैसों की खासी बचत हो जाती थी। मगर घाटा बता कर ये सेवा बंद कर दी गयी। तमाम कल्याणकारी
योजनाओं में लाखो-करोड़ों रूपये पानी की तरह बहाया जाता है। लेकिन महिला सुरक्षा का
नाम पर घाटा होता है। वाह! सुबह-शाम बेशुमार बहनें-बेटियां बस-आटो के लिए बेतरह भटकती
है। मर्दों की धक्का मुक्की और उलूल-जुलूल हरकतें सहन करती हैं। मर्दों की सरकार है।
औरत की तकलीफ को ये क्या जानें? औरत तो बस बिस्तर की चीज है। महिला सुरक्षा संघटन जाने क्या करते हैं?
खुद से किए गए इन तमाम सवालों के जवाब उसे नहीं मिलते हैं। तब
वो तय करती है कि वो कल सीएम को पत्र लिखेगी। और अगर ज़रूरत हुई तो धरना भी देगी।
मगर अगली
सुबह उठते ही काम-काज की भागम-भाग भरी ज़िंदगी में वो रात तक के लिए गुम हो जाती है।
बिस्तर पर गिरते ही उसे ख़ुद से किया वादा याद आता है। चलो कल सही। लेकिन अगली सुबह
और फिर अगली सुबह यही होगा। सिलसिला चलता रहेगा,
वही भूल....वो अक्सर भूल जाती है।
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Published in Prabhat Khabar dated 13 June 2016
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