-वीर विनोद छाबड़ा
मध्यम कद, साधारण रंग-रूप
और नैन-नक्श। चेहरे पर कई जगह पिंपल। एक नज़र में कुछ भी नहीं। लेकिन इसके वो बावजूद
सुपर स्टार बना। यकीनन वो मिथक ही हो सकता है। इसका नाम था राजेश खन्ना उर्फ काका।
वो १९६५ में आयोजित युनाईटेड प्रोड्यूसर टेलेंट हंट की खोज थे। आते ही कलाबाज़ियां शुरू
हो गईं। उन्हें सबसे पहले नासिर हुसैन ने 'बहारों के सपने' के लिए साईन किया, लेकिन रवींद्र
दवे की ‘राज़’ सबसे पहले फ्लोर पर गयी।
और रिलीज़ के मामले में बाज़ी चेतन आनंद की ‘आख़िरी ख़त’ मार ले गई। बाक्स
आफ़िस पर कोई कमाल नहीं हुआ। हां, समालोचकों ने ज़रूर दबे
लफ्ज़ों में ऐलान किया कि बंदे में काफ़ी दम है। बस एक हिट चाहिए। और यह ब्रेक मिला शक्ति
सामंत की 'आराधना' से।
और उसके बाद शुरू हुआ सुपर
स्टार से मिथक बनने का दौर। 'हाथी मेरे साथी' बहुत से साथियों
को याद होगी। विषय था, इंसान का जानवरों से प्यार।
बच्चे क्या, बड़े-बूढ़े तक राजेश के दीवाने हो गए। वो राजेश से काका हो गए, ब्वाय लिविंग नेक्सट
डोर। आज भी यह रहस्य कि जनता किसमें क्या देख कर फर्श से अर्श पर बैठा देती है। तब
तो आज जैसा मीडिया हाईप भी नहीं था, जिस पर राजेश को सुपर स्टार
बनाने का इल्ज़ाम लगता। वो बात अलबत्ता दूसरी है कि चार साल पहले राजेश की मौत को ज़रूर
मीडिया ने खूब भुनाया। चौथे के बाद अस्थि विसर्जन तक मीडिया कैमरों ने पीछा नहीं छोड़ा।
मौजूदा पीढ़ी ने भी जाना कि कभी राजेश खन्ना नामक मिथक रूपी सुपर स्टार होता था।
यकीनन राजेश खन्ना बहुत
अच्छा कलाकार थे। पात्र की खाल में घुसने की चेष्टा में लगे रहते। खुद को परिमार्जित
करते रहते। उनमें रेंज और वैरायटी भी ज्यादा थी। मगर बावजूद इसके १७० फिल्मों के इस
कलाकार की ज्यादातर फिल्मों में उनका सुपर स्टार होने का अहम छाया रहा। चंद फिल्में
ही हैं जिनमें सुपर स्टार के भार से दबा कलाकार बाहर आया - आख़िरी ख़त, खामोशी, आराधना, अमर प्रेम, दो रास्ते, आनंद, इत्तिफ़ाक़, सफ़र, बावर्ची, नमक हराम, दाग़, अविष्कार, प्रेम कहानी, आपकी कसम, अमरदीप, अमृत, अवतार, थोड़ी सी बेवफ़ाई, अगर तुम न होते, जोरू का गुलाम, आखिर क्यों, सौतन और पलकों
की छांव में। इसकी एक बड़ी वजह परफॉरमर तलाशने वाले निर्देशक भी थे।
स्टार तो पहले भी हुआ करते
थे। ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, एवरग्रीन देवानंद, शोमैन राज कपूर
और सबसे ऊपर अशोक कुमार। लेकिन राजेश खन्ना पहले सुपर स्टार थे। वर्ग, जाति और धर्म के
बंधनो से बहुत ऊपर। बेपनाह मोहब्बत मिली उन्हें। अमिताभ बच्चन तो उनके बाद आए। मगर
सब कुछ होते हुए भी राजेश ‘मुकम्मिल’ नहीं थे। उनके
संपूर्ण कैरीयर और निज़ी जीवन में भारी उथल-पुथल चलती रही। इसने सुर्खियां बन कर उनके
सुपर स्टारडम और आर्टिस्ट मन को ग्रहण लगा दिया। एक वजह यह भी रही कि राजेश ने अपने
हिस्से की बाक्स आफिस चमक-दमक ’नमक हराम’में सह-कलाकार
अमिताभ बच्चन के हाथ अनजाने में सौंप दी। सुना है इस फिल्म की मूल कहानी में अमिताभ
के किरदार को मरना था। परंतु राजेश को लगा कि दर्शक के आंसू अमिताभ के लिये बहेंगे।
तब उन्होंने कहानी में हेर-फेर कराई। खुद मरना पसंद किया। पर दांव उल्टा पड़ा। अमिताभ
अपनी पावरफुल ड्रामाटाईज़्ड परफारमेंस और आवाज़ के दम पर हरदिल अजीज़ हो गए। अब इसे विडंबना
कहिए या भाग्य का खेल या फिर नियति। लाख कोशिशों और करतबों के बावजूद राजेश ‘बाऊंस बैक’ नहीं कर पाए।
सिल्वर और गोल्डन जुबली
की लंबी फेहरिस्त के बादशाह राजेश खन्ना, अमिताभ के सुपर
इरा में एक के बाद एक मिली अनेक नाकामियों को हज़म नहीं कर पाये। यही बात उन्हें ज़िंदगी
भर सालती रही और २९ दिसंबर, १९४२ को अमृतसर में जन्मा
ये मिथक १८ जुलाई, २०१२ को बेवक़्त और बेवजह ‘अच्छा तो हम चलते
हैं’ कह गया। आज भी
दुनिया को राजेश का मशहूर संवाद ‘पुष्पा, आई हेट टीयर्स’गुदगुदाता है।
बूढ़े होते देवानंद के बाद राजेश खन्ना ही थे जिनकी अदाओं पर छोरियां मर मिटी थीं।
हर वो शख्स, जो पैंतालीस-छियालीस
साल का है और जिसका नाम राजेश है, यकीनन राजेश खन्ना की लोकप्रियता
के दौर के प्रोड्क्ट हैं। और कदाचित उन्हें गर्व भी होगा कि राजेश खन्ना नाम का एक
मिथक था।
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Published in Navodaya Times dated 25 June 2016
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A beautiful and realistic presentation. Tanks Chhabaraji.
ReplyDeleteThanks respected chhabaraji for covering all the important events of rajesh khanna.
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