Saturday, June 18, 2016

अंधविश्वास के विरोधी शांताराम।

-वीर विनोद छाबड़ा
अंधविश्वास का दूसरा नाम है फ़िल्मी दुनिया। दिमाग में स्टोरी आईडिया के जन्म लेने से लेकर रिलीज़ होने तक तमाम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च के चक्कर लगते हैं। बड़े से बड़ा नास्तिक भी मत्था टेकता और नाक रगड़ता हुआ दिखता है। बरगद-पीपल के के फेरे मारता है। ज्योतिषियों-नजूमियों की सलाह लेता है। लेकिन हिंदी और मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री के महारथी व्ही.शांताराम उर्फ़ अण्णासाहेब अंधविश्वास और दकियानूसी की दुनिया से बहुत दूर थे।
पचास के दशक में कैदियों को सुधारने के लिए सतारा ज़िले की एक राजसी स्टेट में 'प्राचीर विहीन जेल' का प्रयोग किया गया था। यह ख़बर शांताराम जी तक पहुंची। वो अनेक पाथ-ब्रेकिंग फिल्मों के जनक रह चुके थे। उनके दिमाग में एक आईडिया ने जन्म लिया - दो ऑंखें बारह हाथ। छह खूंखार कैदी और एक सुधारवादी जेलर। जेलर का दावा था कि सबसे ख़तरनाक छह क़ैदी पैरोल पर उसके हवाले कर दो। उन्हें खुले वातावरण में रख कर साल भर में सुधार देगा। और जेलर ने तमाम दिक्कतों को सहते हुए हत्यारों में सोये अच्छे इंसान को जगा दिया। मगर ऐसा करने में जेलर की जान ज़रूर चली गयी।
दिलीप कुमार ने भी जेलर बनने से मना कर दिया। लेकिन अण्णासाहेब का दिल न टूटा। कैमरे के सामने खुद खड़े होने का फैसला किया। अभी कहानी रुकी नहीं। लीक से हटी यह फ़िल्म जब फ्लोर पर गयी तो उस दिन अमावस थी। जिसने भी सुना, यही फुसफुसाया कि पागल हो गए हैं अण्णासाहेब। उन्हें बहुत समझाया-बहलाया गया। आप इतने गुणी और अनुभवी हो, फिर भी नहीं मालूम कि अमावस का दिन किसी और के लिए शुभ हो सकता है, मगर फ़िल्म वालों के लिए बिलकुल नहीं। क्यों आत्महत्या करना चाहते हो।
 
मगर अण्णासाहेब न माने। वो अंधविश्वास के सिर्फ़ दिखावटी विरोधी नहीं थे। आदर्शवादी फ़िल्में बनाते थे तो असल ज़िंदगी में दूसरों के लिए सबक थे। और लाख विरोधों के बावजूद 'दो आंखें बारह हाथ' (१९५७) अमावस के रोज़ ही फ्लोर पर गयी।
आगे की कहानी तो हिस्ट्री है। फिल्म नहीं एक क्लासिक ही बन गया। इस फिल्म को १९५६ में सर्वश्रेष्ठ फिल्म और श्रेष्ठ हिंदी फिल्म का राष्ट्रीय पुरूस्कार मिला। बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सिल्वर बीयर जीता। इसके अलावा अपने कथ्य, अनुकरणीय कल्पनाशीलता और निर्माण की गुणवत्ता के कारण कई इंटरनेशनल फेस्टिवल्स में अवार्ड के लिए नॉमिनेट हुई और खूब सराही भी गयी। दिलीप कुमार भी पछताये कि काश, मैंने न नहीं की होती। बाद में इसका तमिल वर्जन बना, जिसमें ग्रेट एमजी रामचंद्रम हीरो थे और तेलगु संस्करण में ग्रेट एनटी रामाराव। यही नहीं, इस फिल्म का ये गाना देश के कई स्कूलों में सुबह की प्रार्थना गीत बना  - ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें, और बदी से टलें, ताकि हंसते हुए निकले दम...अपने कथ्य के दृष्टि से आज भी यह अनुकरणीय फिल्म है।
एक अमावस ही उदाहरण नहीं था। अण्णासाहेब की तमाम फ़िल्में बिना मुहूर्त फ्लोर पर जाती थीं और बिना प्रीमियर हुए रिलीज़ होती थीं। वो उन पहले महारथियों में से थे जिन्होंने पहचाना कि समाज सुधार, जुल्म के विरुद्ध आवाज़ उठाने और तमाम सड़ी-गली परम्पराओं व रीति-रिवाजों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए फिल्म एक सशक्त मीडिया है। डॉ कोटनिस के अमर कहानी, अमर भोपाली, दुनिया न माने, पडोसी, दहेज, स्त्री, शकुंतला, झनक झनक पायल बाजे, नवरंग, जल बिन बिजली नृत्य बिन बिजली, पिंजरा, गीत गाया पत्थरों ने, बूंद जो बन गयी मोती आदि अनेक लैंडमार्क फ़िल्में बनायीं उन्होंने। वो १८ नवंबर १९०१ को जन्मे थे। सामाजिक चेतना से भरपूर इस महान चिंतक का ३० अक्टूबर १९९० को अवसान हुआ। सिनेमा का सबसे ऊंचा दादा साहब फाल्के अवार्ड उन्हें मिला और भारत सरकार ने पदम भूषण देकर खुद को गौरवांवित किया।
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Published in Navodaya Times dated 18 June 2016
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