Tuesday, June 14, 2016

लिटरेरी श्रीवास्तव।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे एक दोस्त हैं राजेंद्र कुमार श्रीवास्तव। हमारे सहकर्मी भी रहे हैं। हम दोनों कुछ दिनों के अंतराल साथ साथ भर्ती हुए और एक वर्ष के अंतराल पर दिसंबर में  रिटायर हुए हैं। हमारे कार्यालय में कई राजेंद्र थे। वो राजेंद्र-प्रथम कहलाते थे। लेकिन हम उन्हें लिटरेरी श्रीवास्तव कहते थे। साहित्य प्रेम उनकी विशेषता है।  पुस्तक खरीद कर पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि मनन करते हैं और मित्रों के बीच बैठ कर व्याख्या भी। निराला, यशपाल, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, राही आदि सैकड़ों लेखकों की कृतियां उनकी ज़ुबां रहती थीं। हमें उनसे ईर्ष्या भी होती थी।

आज बरसों गुज़र जाने के बाद भी पुस्तकों से पढ़े हुए कई रोचक प्रसंग उन्हें बहुत अच्छे से स्मरण हैं। बहुत चाव से रस ले-लेकर सुनाते हैं। हम तो गदगद हो जाते हैं। घंटो बैठे रहते हैं। उन्हें भी सुनाने का शौक है और हमें सुनने का। सैतीस साल का जो सर्विस पीरियड हमने उनके साथ गुज़ारा है तो उन्हें अक़्सर साहित्य प्रेमियों से घिरा देखा है, ज्ञान बांटते हुए।
साहित्य प्रेम कभी मरा नहीं करता। श्रीवास्तव जी में आज भी वही ताव और शौक है। जब भी ज़िक्र करते हैं तो साठ और सत्तर में प्रकाशित किसी पुस्तक का, जो आउट ऑफ़ सर्कुलेशन होती है। जी ललचा जाता है। काश हम भी पढ़ लेते इस पुस्तक को!
वो समस्या को भांपने में देर नहीं करते। कुछ देर के लिए हमें अकेला छोड़ कर अंतर्ध्यान हो जाते हैं। दस मिनट के बाद लौटते हैं तो पुस्तक के साथ। उस पर ताज़ा-ताज़ा कवर चढ़ा होता है। बताते हैं कि किताब के किनारे चूहे कतर गए हैं। साहित्य प्रेमी के घर में भले राशन ख़तम हो जाये, लेकिन पुस्तकें ज़रूर बहुतायत में रहती हैं। इसलिए भिन्न-भिन्न आकार के चूहे उसके यहां ही भरपूर संख्या में मिलते हैं। पड़ोसी के चूहे भी रसास्वादन के लिए गाहे-बगाहे विज़िट करते रहते हैं। 

हम देर-सवेर पुस्तक लौटा भी देते हैं। लेकिन पिछली पुस्तक लौटाने में कई विचित्र घटनायें हुई। हम पुस्तक लौटाने गए। बात-चीत में इतना मशगूल हो गए कि समय का ख्याल नहीं रहा। जल्दी से घर भागे। आधे रास्ते याद आया कि पुस्तक तो स्कूटर के हेलमेट बॉक्स में है। अगली बार हम पुस्तक रखना ही भूल गए। महीने बाद हम निकले तो उनके घर के लिए लेकिन दरवाज़ा उसी मोहल्ले के किसी दूसरे मित्र का खटखटा दिया। फिर वहीं बैठे रह गए। अगली बार जब हम उनके घर पहुंचे तो याद आया कि पुस्तक हमने कार में रखी थी और स्कूटर ले कर आ गए।
इस बीच उन्होंने कभी पुस्तक के लिए याद नहीं दिलाया। लेकिन हम उनके चेहरे के भावों को पढ़ते रहे। सोचते थे, कितना शरीफ़ आदमी है? अंततः छटवें महीने हम उनकी पुस्तक वापस कर पाये।
वो बोले - याद कराने का मन बना ही रहा था। उस दिन भी उन्होंने कई रोचक प्रसंग सुनाये। फिर लुंगी समेटते हुए वो अचानक उठे। हमने उन्हें रोक दिया। श्रीवास्तव जी, आज नहीं। अगली बार। पंद्रह दिन बाद आऊंगा, तब देना पुस्तक।

श्रीवास्तव जी हंस दिए - मैं तो बाथरूम जा रहा हूं।
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Lucknow - 226016 

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