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वीर विनोद छाबड़ा
अस्सी का दशक था। हमारे घर में एक १६५ लीटर वाला फ्रिज था। हालांकि परिवार बहुत
बड़ा नहीं था, लेकिन मित्रों-रिश्तेदारों का आये दिन आना-जाना और बच्चों की ज़रूरतों की वजह से
एक अतिरिक्त फ्रिज की ज़रूरत थी। हम जैसे-तैसे ९० लीटर का एक फ्रिज खरीद लाये। माता
जी को बुरा लगा। लोग क्या कहेंगे? लेकिन पिताजी ने समर्थन किया। उसे मेरी तरह सेल्फ-मेड बनने दो।
इसी तरह धीरे धीरे हमने तिनका तिनका जोड़ कर टीवी, कूलर, अलमीरा, बुक शेल्फ, स्कूटर आदि ज़रूरत की
सब चीज़ें खरीद लीं। सबसे ज्यादा खुश पिताजी ही हुआ करते थे। नौकरी लगने के बाद हमने
अपनी ज़रूरत के लिए उनसे कभी पैसा नहीं मांगा। हां, मकान बनवाने में उन्होंने
कुछ पैसा ज़रूर लगाया। हालांकि, मकान मेरे नाम था। मगर मुझसे लोग कहते थे - अच्छा तो आप रामलाल जी वाले मकान में
रहते हैं।
हम कह सकते थे कि नहीं वो मेरे मकान में रहते हैं। लेकिन कभी कह नहीं पाया। दरअसल, अच्छा लगता था। पिता
के साये में बहुत महफूज़ महसूस करते थे हम स्वयं को। फिर उनका कद और व्यक्तित्व भी बहुत
बड़ा था। पुराने जानने वाले तो आज भी यही पूछते हैं कि आप अभी तक रामलाल जी वाले मकान
में ही रहते हैं न।
बहरहाल, ज़िंदगी में ऐशो-आराम की सब चीज़ें हासिल करने के बाद एक चीज़ की कमी रही। इसके लिए
पिताजी भी अक्सर मुझसे कहा भी करते थे - विनोद, एक कार भी ले लो। उन्हें
अक्सर कहीं न कहीं आने-जाने के लिए दोस्तों यारों पर निर्भर रहना पड़ता था। अपनी ज़िंदगी
के आख़िरी तीन साल में तो उनको इसकी शिद्दत से ज़रूरत हुई। इस दौरान वो कैंसर से पीड़ित
रहे। लेकिन दिक्कत यह थी कि ज्यादा पैसा नहीं था। न जाने पिताजी के ईलाज के लिए कब
और कितना ज़रूरत पड़ जाये। इसी दौरान माता जी को भी पैरालिसिस हो गया। हाथ को और भी तंग
करना पड़ा। पिताजी कहते थे कि थोड़ा पैसा मुझसे ले लो और कार ख़रीद लो।
लेकिन ऐसा सोचना भी हमें गवारा नहीं था। हमारा इरादा अपनी मेहनत की कमाई से खरीदी
कार से घुमाने का था। अफ़सर की पोस्ट पर हमारा प्रमोशन बस होने ही वाला था। तब एडवांस
भी मिल जाएगा। यह नब्बे के मध्य का समय था। पुरानी फ़िएट चालीस-पचास हज़ार में मिल जाती
थी। पहला काम कार का ही करना है।
और आख़िरकार एक दिन हमारा प्रमोशन हो गया। पिताजी बहुत खुश हुए। हमें उस दिन उनकी
आंखों में देखी चमक और ख़ुशी आज भी याद है। लगा जैसे उनका प्रमोशन हुआ हो।
हमें मालूम था कि उनके जीवन में ज्यादा दिन नहीं हैं। हमारी दो इच्छाएं थीं। पहली, वो अपने जीते जी हमारा
प्रमोशन देख लें और दूसरी, अपनी कार में उनको सैर कराएं। प्रमोशन वाली बात तो पूरी हुई। हमने शुक्र मनाया।
अब रही कार वाली बात। लेकिन वो दिन कभी नहीं आया। हम सोचते ही रह गए। पिताजी को कार
में नहीं घुमा पाये। बहुत मलाल है हमें इसका।
बाद में
जब हमने कार खरीदी तो माताजी बहुत खुश हुईं। उनको बहुत धुंधला दिखता था। तीस फुट दूर
से पहचान गईं कि कार का रंग लाल है। काश माता-पिता दोनों को एक-साथ कार में बैठा कर
ड्राइव किया होता। किसी ने सच ही कहा है - हर किसी को मुक़म्मल जहां नहीं मिलता।---
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