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वीर विनोद छाबड़ा
हमें बचपन की एक घटना याद आ रही है। १९५९-६० की बात है। हम नौ-दस साल के रहे होंगे।
गर्मी की छुट्टियां थीं। अपने पड़ोसी मित्रों के साथ सुबह सुबह टहलने जा रहे थे।
अचानक एक मित्र को ज़मीन पर पड़ा दो रूपए का नोट दिखा। दूसरे ने लपक कर उसे उठा लिया।
मैला सा नोट था। कुछ मुड़ा-तुड़ा सा था। वो लोग ख़ुशी से उछल पड़े।
हम बाखबर चार क़दम आगे निकल चुके थे। उनका आह्लाद सुन कर पलटे और माज़रा पता चला।
आगे की टहल का प्रोग्राम कैंसिल हो गया। तय हुआ कि इसे बांट लिया जाए। एक जिसने देखा
और दो जिसने उठाया।
हम ठन ठन गोपाल। हमारा कंट्रीब्यूशन ही क्या था? हम निराश से घर लौटे।
थोड़ी देर बाद दरवाज़े पर खट खट हुई। हमारे वही दो मित्र खड़े थे। उनमें से किसी के पिता
ने सलाह दी थी कि पैसा दो के नहीं तीन के भाग्य से मिला है। इसलिए तीन हिस्सेदारियां
होंगी। चूंकि इस पावत में मित्रों की भूमिका अधिक थी, अतःउनकी जेब में ग्यारह-ग्यारह
आने और हमारे हिस्से दस आने।
मज़ा आ गया। उस ज़माने में एडल्ट की हेयर कटिंग दुअन्नी में हुआ करती थी और चिल्ड्रन
इकन्नी में निपटाए जाते थे। लेकिन हमने सड़क किनारे बोरा बिछा कर बैठे नाई बाल कटाना
बेहतर समझा। सिर्फ दो पैसे में। यहां कुर्सी की बजाये ईंट पर बैठना होता था। हम लोग
इन्हें 'गुम्मा कट हेयर कटिंग सैलून' कहते थे। इकन्नी की जलेबी ली। भरपेट खायी। मज़ा आ गया।
पिताजी टूर के बाद घर लौटे तो उन्हें बेटे की कमाई के बारे में पता चला। बहुत डांट
पड़ी। न जाने किस ग़रीब या मजलूम के पैसे रहे हों।
हम डर गए। कहीं ऐसा न हो कि 'हाय' लग जाए। बाकी बचे पैसे हमने मां को दे दिए। मां ने उन्हें पूरे दस आने बना दिए।
फिर वो सामने सड़क पार मौनी बाबा के मंदिर में स्थापित हनुमान जी मूर्ति के आगे डाल
आई - भगवान, आप अंतर्यामी हो, जिसके हों उसे लौटा
देना।
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