- वीर विनोद छाबड़ा
प्राण कृष्ण सिकंद उर्फ़ प्राण बहुत बड़े कलाकार थे। अभिनय के हर रंग को जम कर जिया
उन्होंने। प्राण साहब आदमी भी बड़े दिल वाले। वो अवार्ड के कभी मोहताज़ नहीं रहे। बल्कि
अवार्ड स्वयं सम्मानित होने के लिए उनके पीछे पीछे रहा। प्राण साहब के ज़माने में यूं
तो फ़िल्मी पुरस्कार देने वाली कई संस्थाएं थीं, लेकिन फिल्मफेयर अवार्ड
का मयार सबसे ऊंचा माना जाता था। आज दर्जनों अवार्ड हैं, लेकिन फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड
की मान्यता आज भी सबसे ऊपर है। इसे हॉलीवुड की तर्ज पर आस्कर अवार्ड भी कहते हैं। लेकिन
कभी कभी इससे क्लासिक भूल भी होती रही है।
बात १९७२ की है। एक फ़िल्म आई थी - बेईमान। प्राण ने इसमें एक ईमानदार पुलिसवाले
रामसिंह के किरदार को बहुत ही सहज जीया था। लोग कहते थे मुर्दा किरदार में प्राण फूंक
दिए प्राण साहब ने। उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड मिला। इस फ़िल्म में शंकर-जयकिशन
का संगीत भी शानदार था। उसी साल कमाल अमरोही की 'पाकीज़ा' भी रिलीज़ हुई थी। गुलाम
मोहम्मद का बेहतरीन संगीत। इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा...चलो दिलदार चलो...ठाड़े
रहियो... आज भी जन-जन की ज़ुबान पर हैं। जबकि
इस बीच दो पीढ़ियां बदल चुकी हैं। दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा थी। लेकिन पलड़ा साफ साफ
गुलाम मोहम्मद के पक्ष में भारी था। लेकिन अवार्ड गया शंकर जयकिशन की झोली में। संगीत प्रेमी सन्न रह गए।
प्राण साहब को भी बहुत हैरानी हुई। उन्हें बहुत खराब लगा। अवार्ड देने वाली ज्यूरी
से कहीं न कहीं भूल हुई है। लेकिन फ़िल्मफ़ेयर ने माना कि शंकर-जयकिशन का संगीत गुलाम
मोहम्मद से बेहतर है। प्राण साहब ने विरोध स्वरूप अवार्ड लेने नहीं गए।
फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड के विवादों के घेरे में आने का यह पहला अवसर नहीं था। इससे पहले
सन १९६० में प्रदर्शित के.आसिफ की 'मुगल-ए-आज़म' का नाम तो सभी ने सुना होगा। क्लासिक फिल्म थी। १९७५ में रिलीज़ हुई 'शोले' से पहले तक भारत की
सबसे महंगी और सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म थी। निर्माण, गीत-संगीत, भव्यता, फोटोग्राफ़ी, अदाकारी आदि हर पक्ष
में बेहतरीन। लेकिन जब अवार्ड घोषित हुए तो हिस्से में सिर्फ तीन ही आए - बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायलॉग और बेस्ट
फोटोग्राफ़ी। क्लासिक बात तो यह हुई कि उन्हीं दिनों आसिफ़ के दोस्त गुरुदत्त 'चौदहवीं का चांद' बना रहे थे। अपने सेट
के लिए 'मुगल-ए-आज़म' के सेट का कुछ सामान उधार ले गए। और बेस्ट आर्ट डायरेक्शन का अवार्ड पा गए। सबसे
बड़ा धक्का तो दिल की मरीज़ मधुबाला को लगा। उसने जान की बाज़ी लगा दी थी, अनारकली के किरदार
को ज़िंदगी देने में। लेकिन अवार्ड मिला 'घूंघट' की बीनाराय को। हर शख्स हैरान और परेशान था कि उलटा-पुलटा हुआ कैसे? आसिफ़ और उनकी टीम इतनी
मायूस हुई कि अवार्ड फ़ंक्शन ही अटेंड नहीं किया।
ज्ञातव्य है कि धर्मेंद्र ने फूल और पत्थर, शराफ़त, सत्यकाम, चुपके चुपके, प्रतिज्ञा, दोस्त, यादों की बारात, मेरा गांव मेरा देश
आदि अनेक फिल्मों में बेहतरीन एक्टिंग की। कई बार नॉमिनेट भी हुए। लेकिन ऐन वक़्त पर
अवार्ड खिसक कर किसी और के हाथ चला गया। आख़िरकार उन्हें १९९७ में फिल्मफेयर लाईफ़ टाईम
अचीवमेंट अवार्ड मिला। इसे रिसीव करते हुए उन्होंने दिल का गुब्बार कुछ यों निकाला
था - पचास साल से मैं इसका इंतज़ार कर रहा हूं। लेकिन बेस्ट एक्टर का अवार्ड मुझसे हमेशा
दूर रहा।
दो राय नहीं कि अवार्ड तो एक को ही मिलना होता है। पक्षपात भी होता है। लेकिन असली
अवार्ड तो जनता ही देती है। याद है साधना। फैशन की आइकॉन। बेहतरीन अभिनेत्री। मगर उसे
फिल्मफेयर अवार्ड कभी नहीं मिला। और उन्हें इसका कोई मलाल नहीं रहा। दिलों में ज़िंदा
रहना ज़रूरी है।
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Published in Navodaya Times dated 22 June 2016
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