-वीर विनोद छाबड़ा
सन १९७८ की बात है।
'माधुरी' में राही मासूम रज़ा ने नसीरुद्दीन की शान में कुछ ऐसा लिखा था
कि जैसे उनमें अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के बराबर परफॉर्म करने की कूवत हो। तब तक वो
श्याम बेनेगल की मंथन, निशांत और भूमिका जैसी चंद आर्ट फिल्मों में ही दिखे थे। अच्छी
अदाकारी के बावजूद उन्हें पहचानने वाले कम थे। जिसने भी राही को पढ़ा, हंस दिया। कुछ लोग
गुस्सा भी हुए। कौन है यह नसीरुद्दीन? युसूफ भाई की इंसल्ट
है यह तो। जब नसीर को राही के बयान के बारे में पता चला तो उनके चेहरे पर गर्व था,
मगर घमंड नहीं। आसमान की देखा। कहां युसूफ साहब और कहां मैं।
लेकिन साल गुज़रते-गुज़रते
नसीर ने साईं परांजपे की 'स्पर्श' में जब बेस्ट एक्टर का नेशनल अवार्ड जीता
तो राही साहब का कथन सच होते दिखा। इसमें उन्होंने एक ऐसे खुद्दार इंसान की भूमिका
अदा की थी जो देख नहीं सकता था। नसीर ने यह अवार्ड १९८४ में 'पार' के लिए और २००४ में
'इक़बाल' के लिए फिर जीता। १९८१, १९८२ और १९८४ में क्रमशः
आक्रोश, चक्र और मासूम के लिए बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड हासिल
किया। नसीर रिकॉर्ड १५ बार भिन्न-भिन्न किरदारों के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में नॉमिनेट
हुए। भारत सरकार ने उन्हें १९८७ में पद्मश्री और २००३ में पद्मभूषण के लिए नवाज़ा। अलावा
इसके अनेक नेशनल/इंटरनेशनल अवार्ड उनकी झोली में गिरे।
१९८२ में रिचर्ड एटनबरो
की 'गांधी' रिलीज़ हुई थी। बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस भूमिका के लिए
पहले नसीर का नाम विचारा गया था। लेकिन ऐन मौके पर वो अंग्रेज़ बेन किंग्स्ले से हार
गए। एटेनबरो को ऐसा एक्टर चाहिए थे जिसे भारत में कोई पहचानता न हो। लेकिन गांधी बनने
की उनकी ख्वाईश आगे चल कर 'हे राम' और 'महात्मा वर्सेज महात्मा'
में पूरी हुई। नसीर की ख्वाईश थी कि मराठा किंग शिवाजी की भूमिका का कभी मौका मिले।
बेनेगल की पं. जवाहरलाल नेहरू की किताब 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया'
पर आधारित 'भारत एक खोज' में उनकी यह चाहत पूर्ण
हुई।
नसीर का फ़िल्मी सफर
घटनाओं से भरा हुआ है। जब वो एफटीआईआई में थे तो उनके एक क्लासमेट राजेंद्र जसपाल ने
उन्हें ईर्ष्यावश चाकू मार दिया। हेमा मालिनी की पहली फिल्म 'सपनों का सौदागर'
में १८ साल के नसीर का भी एक छोटा सा किरदार था। मगर ऐन रिलीज़ से पहले उनका किरदार
काट दिया गया। फिरोजखान ने 'प्रेम अगन' में बेटे फरदीन के पिता के रोल के लिए नसीर
को लेना चाहा था। लेकिन इसलिए मना कर दिया क्योंकि रोल का चित्रण उनके कद से छोटा था।
फ़िरोज़ ने बहुत तारीफ़ की थी नसीर की।
जब कामयाबी सर पर चढ़ती
है तो जाने-अनजाने हंगामा खड़े करने वाले बयान मुंह से निकल ही जाते हैं। १९८५ में एक
इंटरव्यू में नसीर ने कह दिया कि वो दिलीप कुमार को बड़ा आर्टिस्ट नहीं मानते। उन दिनों
सुभाष घई 'कर्मा' की कास्ट फाइनल कर रहे थे। दिलीप कुमार के
साथ में जैकी श्राफ और अनिल कपूर भी थे। सुना है दिलीप के कहने एक जगह नसीर के लिए
बनाई गई। देखना है कि बाज़ुओं में कितना ज़ोर है। सारा फ़ोकस दिलीप कुमार बनाम नसीर हो
गया। देखें कौन बड़ा पहलवान है। फ़िल्म के ख़त्म होते-होते नसीर ने बयान बदल दिया - युसूफ
भाई बहुत बड़े आर्टिस्ट हैं।
नसीरुद्दीन उन विरल
अदाकारों में हैं जो किरदार के साथ एकाकार हो जाते हैं। उनका कहना है कि असल एक्टर
वो है जो हर किस्म के किरदार को जिए। हीरो भी हो और विलेन भी और कॉमेडियन भी। और नसीर
ने यह सब किरदार बहुत सहजता से जिए हैं। 'मोहरा' और 'सरफ़रोश' में विलेन थे और 'हीरो हीरालाल'
और 'जाने भी दो यारों' में कॉमेडियन। 'ए वेडनेसडे'
उनकी बेहतरीन फ़िल्म है। आतंकवाद से सताये एक आम आदमी का किरदार जो अपनी तरह वो
बदला लेता है। मालूम नहीं कि वो राम है या रहमान, या डिसूज़ा। 'मंडी' में वो मुंडू थे,
औरतों के दलाल। बेहतरीन परफॉरमेंस की एक और मिसाल है, गुलज़ार के टीवी सीरियल
'मिर्ज़ा ग़ालिब' के मिर्ज़ा। जिसने सोहराब मोदी की 'मिर्ज़ा ग़ालिब'
के मिर्ज़ा भारत भूषण को नहीं देखा है, वो नसीर को देख कर
यही कहेगा कि मिर्ज़ा ग़ालिब ऐसे ही रहे होंगे। उनकी नज़र में आर्ट और कमर्शियल सिनेमा
में एक्टिंग अलग-अलग नहीं होती। कोई-कोई उन्हें सदी के महानायक से भी बेहतर बताता है।
लेकिन त्रासदी यह है कि किसी ने उनको आमने-सामने कास्ट नहीं किया है। लेकिन अगर आज
पांच आल टाइम टॉप ग्रेट का फैसला करना हो तो यकीनन अमिताभ के साथ नसीर उसमें ज़रूर होंगे।
परफॉरमेंस पसंद करने
वालों की नज़र में वो एक्टिंग का ऐसा स्कूल हैं जो पब्लिसिटी का मोहताज़ नहीं है।
उनकी कुछ
अन्य बेहतरीन फ़िल्में हैं - दि परफेक्ट मर्डर, खुदा के लिए, मानसून वेडिंग, बाज़ार, कथा, इजाज़त, गुलामी, त्रिदेव, दिल आख़िर
दिल है, वो सात दिन, हे राम, इश्क़िया, डर्टी पिक्चर आदि। ---
Published in Navodaya Times dated 15 June 2016
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