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वीर विनोद छाबड़ा
मिस्र में कभी अनस्तेशियस नाम का महान विचारक रहा करते थे। वो एक विशाल पुस्तकालय
के स्वामी थे। दुनिया के कोने कोने से एकत्र किये हुए एक से बढ़ कर एक अनूठे व दुर्लभ
ग्रंथ उनके पुस्तकालय में उपलब्ध थे। पुरातनकाल काल की पांडुलिपियां का भी विशाल भंडार
था।
दूर दूर से विद्वान् उन्हें देखने आते थे। शोधकर्ता विद्यार्थी तो महीनों वहीं
पड़े रहते थे। एक बार एक संत आये। उन्हें इतना विशाल पुस्तकालय देख कर बहुत ईर्ष्या
हुई। उन्हें पुरानी पुस्तकों से बहुत प्रेम था। लेकिन उनके इस प्रेम का संदर्भ दूसरा
था। वास्तव में संत के भेष में वो पुस्तक चोर थे। पुस्तकें चुराते और बाजार में मोटी
रकम की एवज़ में बेच दिया करते।
एक पुस्तक विशेष पर उनका दिल आ गया। नज़र बचा कर छुपा ली। लेकिन वो बच नहीं पाये।
अनस्तेशियस के शिष्यों ने संत को ऐसा करते हुए देख लिया। उन्होंने अनस्तेशियस से कहा, हम उसे अभी पकड़ सकते
हैं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। पकडे जाने पर उसे फिर एक झूठ बोलना पड़ेगा कि उसने
जान-बूझ कर ऐसा नहीं किया, गलती हो गयी।
कुछ दिन बाद अनस्तेशियस के एक मित्र आये। वो एक धनी सेठ थे। उन्हें शौक था कि जब
भी कोई दुर्लभ पुस्तक दिखी नहीं कि उसे खरीद लिया और पुस्तकालय को भेंट कर दी। उस दिन
भी कुछ ऐसा ही हुआ था। उन्होंने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली और अनस्तेशियस के सामने
रख दी।
अनस्तेशियस चौंक गए। अरे, यह तो वही पुस्तक है जो उस दिन वो संत चुरा कर ले गया था।
सेठ ने पूछा - क्या यह पुस्तक वास्तव में दुर्लभ है और इस पुस्कालय की शोभा बढ़ाने
लायक है?
अनस्तेशियस ने पूछा - परंतु आपको यह कहां
मिली?
सेठ ने बताया कि एक संत ने उन्हें दी है। लेकिन वो मोटी रक़म मांग रहा है।
अनस्तेशियस ने कहा - हां आप उससे मोटी रक़म में खरीद सकते हैं। यह पुस्तक बहुत काम
की है।
सेठ ने उस संत को पुस्तक खरीदते हुए बताया कि वो इस पुस्तक को प्रसिद्ध विचारक
अनस्तेशियस की सलाह पर खरीद रहा है। यह सुनते ही वो संत हक्का-बक्का हो गया। कितने
महान हैं अनस्तेशियस कि सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने सेठ को असली बात नहीं बतायी।
उसने तुरंत पुस्तक बेचने का इरादा बदला और भागा भागा अनस्तेशियस के पास पहुंचा।