Sunday, July 31, 2016

पुस्तक चोर

- वीर विनोद छाबड़ा
मिस्र में कभी अनस्तेशियस नाम का महान विचारक रहा करते थे। वो एक विशाल पुस्तकालय के स्वामी थे। दुनिया के कोने कोने से एकत्र किये हुए एक से बढ़ कर एक अनूठे व दुर्लभ ग्रंथ उनके पुस्तकालय में उपलब्ध थे। पुरातनकाल काल की पांडुलिपियां का भी विशाल भंडार था।

दूर दूर से विद्वान् उन्हें देखने आते थे। शोधकर्ता विद्यार्थी तो महीनों वहीं पड़े रहते थे। एक बार एक संत आये। उन्हें इतना विशाल पुस्तकालय देख कर बहुत ईर्ष्या हुई। उन्हें पुरानी पुस्तकों से बहुत प्रेम था। लेकिन उनके इस प्रेम का संदर्भ दूसरा था। वास्तव में संत के भेष में वो पुस्तक चोर थे। पुस्तकें चुराते और बाजार में मोटी रकम की एवज़ में बेच दिया करते।
एक पुस्तक विशेष पर उनका दिल आ गया। नज़र बचा कर छुपा ली। लेकिन वो बच नहीं पाये। अनस्तेशियस के शिष्यों ने संत को ऐसा करते हुए देख लिया। उन्होंने अनस्तेशियस से कहा, हम उसे अभी पकड़ सकते हैं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। पकडे जाने पर उसे फिर एक झूठ बोलना पड़ेगा कि उसने जान-बूझ कर ऐसा नहीं किया, गलती हो गयी।
कुछ दिन बाद अनस्तेशियस के एक मित्र आये। वो एक धनी सेठ थे। उन्हें शौक था कि जब भी कोई दुर्लभ पुस्तक दिखी नहीं कि उसे खरीद लिया और पुस्तकालय को भेंट कर दी। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ था। उन्होंने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली और अनस्तेशियस के सामने रख दी।
अनस्तेशियस चौंक गए। अरे, यह तो वही पुस्तक है जो उस दिन वो संत चुरा कर ले गया था।
सेठ ने पूछा - क्या यह पुस्तक वास्तव में दुर्लभ है और इस पुस्कालय की शोभा बढ़ाने लायक है?
अनस्तेशियस ने पूछा  - परंतु आपको यह कहां मिली?
सेठ ने बताया कि एक संत ने उन्हें दी है। लेकिन वो मोटी रक़म मांग रहा है।
अनस्तेशियस ने कहा - हां आप उससे मोटी रक़म में खरीद सकते हैं। यह पुस्तक बहुत काम की है।
सेठ ने उस संत को पुस्तक खरीदते हुए बताया कि वो इस पुस्तक को प्रसिद्ध विचारक अनस्तेशियस की सलाह पर खरीद रहा है। यह सुनते ही वो संत हक्का-बक्का हो गया। कितने महान हैं अनस्तेशियस कि सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने सेठ को असली बात नहीं बतायी। उसने तुरंत पुस्तक बेचने का इरादा बदला और भागा भागा अनस्तेशियस के पास पहुंचा।

Saturday, July 30, 2016

अवसाद से निकलने के लिए शायरा बनीं थीं मीना


-वीर विनोद छाबड़ा
एक नहीं अनेक नायिकाओं ने ट्रेजिक किरदार किये हैं। लेकिन जिस ऊंचाई को मीना कुमारी ने छुआ, किसी और ने नहीं। वस्तुतः मीना महज़ बेहतरीन अदाकारा याद नहीं की जाती हैं, वो ट्रेजडी का पर्याय थीं। जन्म ही ट्रेजडी था। बदसूरत और काली। पिता अली बक्श ने तो बेटा चाहा था। घर में मुफलिसी का मातम और ऊपर से एक और लड़की। छोड़ आये एक अनाथालय में। बीवी ने श्राप दिया कि तुझे दोज़ख़ भी नसीब न हो। अली बक्श खुदा के खौफ से डर गए और वापस बीवी की गोद में डाल दिया।
मीना बड़ी हुई तो पढ़ना चाहा। लेकिन सवाल उठा कि घर का खर्च कैसे चलेगा। तब मीना महज़बीन थी। खेलने-कूदने की महज छह साल की उम्र में ही स्टूडियो के चक्कर लगवाने शुरू कर दिए। बचपन तो देखा ही नहीं। उसे तो पता ही नहीं चला कि वो कब जवान हुई। दूसरों के लिए जीती रही। दूसरे उसे इस्तेमाल करते रहे और वो इस्तेमाल होती रही। किसी को मालूम नहीं था कि उस नन्हीं मासूम की दादी रविंद्र नाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी। उसकी शादी भी टैगोर परिवार में हुई थी। लेकिन हालात ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि सब तिनका तिनका हो गया।
मर्दों की च्वॉइस के मामले में मीना फेल रही। १९ साल की मीना ने ३४ साल के कमाल अमरोही को चाहा। पहले से शादी-शुदा और तीन बच्चों का बाप। एक बटा हुआ शख़्स। शादी के बाद ही मीना को अहसास हुआ कि वस्तुतः उन्होंने कमाल को कभी चाहा ही नहीं था। और न कमाल ने उनको। उन्हें कई बार पीटा गया। सख्त बंदिशें लगायी गयीं। कई साल हुज़्ज़तें सहीं। आख़िर कमाल का घर छोड़ ही दिया। 

मीना की ज़िंदगी में दूसरा शख़्स आया - धर्मेंद्र। वो भी शादी-शुदा था और उम्र में कम। दोनों ने सात फ़िल्में की - पूर्णिमा, काजल, चंदन का पालना, फूल और पत्थर, मैं भी लड़की हूं, मझली दीदी और बहारों की मज़िल। मीना ने धर्मेन्द्र को समझाया कि यह दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है डूबते को नहीं। उनका शीन-काफ़ और तलफ़्फ़ुज़ दुरुस्त किया। लेकिन वो किसी और के लिए उन्हें छोड़ गए।
मीना को ज़रूरत थी एक ऐसे शख्स की जो खुद को भूल कर चौबीस घंटे उनके साथ रहे। ऐसा शख्स उन्हें न गुलज़ार में दिखा और न सावन कुमार टाक में। और फिर अपनी उमगें कुचल कर उनके पास बैठने की फुर्सत किसे।  
होश संभाला तो अवसाद में घिरा पाया। डॉक्टर ने अच्छी नींद के लिये एक घूंट ब्रांडी का नुस्खा लिखा। लेकिन मीना ने उसे आधा गिलास बना दिया। जब समझाया गया तो वो डेटोल की शीशी में मदिरा  भरने लगी। खुद को मदिरा के हवाले कर दिया। इस बीच एक समय ऐसा भी आया जब मीना को एकाएक ज़िंदगी से फिर प्यार हो गया। यह १९६८ की बात है। वो इंग्लैंड और फिर स्विट्ज़रलैंड गयीं। डॉ शैला शर्लोक्स ने उनमें नई उम्मीद जगाई। जब मीना वहां से लौट रही थीं तो डॉ ने वार्निंग दी  - अगर मरने की इच्छा हो तो शराब पी लेना।

दुर्भाग्य से फिल्मों में भी उन्हें सियापे और त्रासदी से भरपूर किरदार मिले। वो इसी को मुकद्दर समझ कर जीने लगी। 'साहब बीबी और ग़ुलाम' की 'छोटी बहु' सरीखी ज़िंदगी अपना ली। इतने परफेक्शन के साथ इस किरदार को जीया कि यह कालजई हो गया। बरसों तक मीना हर छोटी-बड़ी नायिका के लिए रोल मॉडल बनी रहीं। उनकी ज़िंदगी एक किताब हो गयी। विनोद मेहता ने तो लिख भी दी - A Classic Biography (१९७२).
ट्रेजडी की लीक से हट कर ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के साथ 'आज़ाद' की। हलकी-फुल्की कॉमेडी भूमिका। दिलीप तो अवसाद से निकल गए, लेकिन बेचारी मीना फंसी रहीं। अवसाद से निकलने के लिए जाने कब वो शायरा बन गयीं। नाज़ के नाम से लिखतीं रहीं।
मीना की बेहतरीन अदाकारी की बुनियाद में उनकी आवाज़ का भी बड़ा योगदान रहा। अल्फ़ाज़ उनके गले से नहीं दिल से निकलते थे। भोगा हुआ यथार्थ। दर्द में डूबे शब्द। ऐसा जादुई इफ़ेक्ट बना कि सुनने वाला मंत्रमुग्ध होकर किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया। दिलीप कुमार नर्वस हो जाते थे। राजकुमार तो अपने संवाद ही भूल जाते थे।

Friday, July 29, 2016

गर्व का कारण!

- वीर विनोद छाबड़ा
शहर का सबसे खूबसूरत पार्क था वो। वहां टहलने मात्र से इंसान को खुद खूबसूरत होने का अहसास होने लगता था। यहीं पर कोई साल भर पहले मनोहर लाल और मोहन लाल की मुलाक़ात हुई थी। जल्द ही जिगरी यार बन गए। सुबह मुलाक़ात होती थी। घंटो बातें होतीं। दरअसल, दोनों ज़िंदगी में तनहा थे। न कोई आगे और न पीछे। जो थे भी, तो दूसरे शहरों में। किसी को फुर्सत ही नहीं थी मिलने की। मोबाईल पर हेलो हो गई कभी कभी।

एक दिन मनोहर लाल सुबह वॉक पर नहीं आये। मोहन लाल ने सोचा कि कोई वजह होगी। अगले दिन भी मनोहर लाल नहीं दिखे। मोहनलाल ने सोचा कि बंदा बाहर निकल गया होगा। मोबाईल स्विच ऑफ मिला। तीसरा दिन और फिर चौथा दिन। मनोहर लाल नहीं दिखे। हफ़्ता गुज़र गया। मोहनलाल ने सोचा कोई रिश्तेदार गुज़र गया होगा। तेहरवीं करके लौटेगा।
मगर जब पंद्रह दिन गुज़र तो मोहन लाल परेशान हुए। मोबाईल अभी भी स्विच ऑफ चल रहा था। बंदे के घर का एड्रेस भी तो नहीं मालूम। रोज़ बात होती थी कि आज नहीं कल घर देख लेंगे। वक़्त-बेवक़्त ज़रूरत पड़ जाती है, लेकिन वो कल न आया कभी।
मोहन लाल ने पार्क में टहलने वाले कई और लोगों से बात की। सबने कहा कि मॉर्निंग वॉकर तो बस पार्क तक दोस्त होते हैं। हर कोई अपने ग़मों से दुखी है, दूसरों के घर के पते कहां तक संभालते फिरें। मोबाईल हैं तो इसीलिए। जब ज़रूरत हो फोन करो और पहुंच जाओ। अगर बंदा मोबाईल पर भी नहीं है तो समझ लो ऊपर निकल लिया। आओ चार बंदे अफ़सोस कर लेते हैं कहीं बैठ कर।
आज महीने से ऊपर हो गया है मनोहर लाल को गए। मोहन लाल अभी सोच ही रहे कि वो अब कभी नहीं लौटेगा कि वो दिख गया। थोड़ा दुबला दिख रहे थे, लेकिन चेहरे पर भरपूर चमक और जोश पहले से ज्यादा। मोहन लाल ने कस कर जफ्फी पायी। भावुक हो गए। कहां रह गए थे दोस्त? सब ठीक तो है न?
मनोहर लाल ने हाथ ऊपर उठाये। फर्स्ट क्लास हूं यार। खाने पीने में थोड़ी कमी हो गई। दरअसल, मैं जेल में था।

Thursday, July 28, 2016

सिपाही की नसीहत याद है।

- वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ के हज़रतगंज का चौराहा भी किसी भूलभुलियां से कम नहीं है। कोई बारह-तेरह बरस पहले की बात है। हम हज़रतगंज चौराहे पर थे। शाम का वक़्त था। तमाम सरकारी दफ्तर छूटने के कारण वाहनों की भीड़ बहुत थी।

मेमसाब बहुत बोलती थीं। इसलिए हमने उन्हें पीछे बेटी के साथ बैठा दिया था। हम ड्राईविंग सीट पर थे। हमारे दायें जाने का सिग्नल हुआ। लेकिन हम आगे बढ़ें तो कैसे? आगे वाले की कार ही स्टार्ट नहीं हो पा रही थी। हमारे पीछे एक पुलिस जीप थी। ड्राईवर हमें हॉर्न पर हॉर्न मार रहा था। आधा मिनट न गुज़रा होगा कि सिग्नल लाल हो गया।
तभी पीछे जीप का ड्राईवर उतर कर आया। वो पुलिस की वर्दी में था। तीन-चार चुनींदा गालियां दी। अबे चूतिये, किसने तुझे गाड़ी चलाने का लाइसेंस दिया है?
हम हक्का-बक्का। पहले तो समझे कि सिपाही है। किसी को दे रहा होगा गाली। इनकी तो आदत ही होती है, गुम्मे-पत्थर तक को गाली देते रहते हैं। इधर पीछे बैठी हमारी मेमसाब और बेटी खीं-खीं करके हंस रही थीं। लेकिन जब वो हमारे सर पर आकर खड़ा हो गया तो माज़रा हमारी समझ में आया। पुलिस से हमारी पिछली साथ पुश्तें डरती आई हैं। हम दरवाज़ा खोल कर डरते डरते बाहर निकले। अब शक्ल सूरत से और ड्रेस से हम ड्राईवर तो लग नहीं रहे थे। मोटे लेंस वाला प्रभावशाली काला चश्मा भी नाक पर रखा था। यों भी हम उन दिनों अंडर सेक्रेटरी हुआ करते थे।
सिपाही सकपका गया। इससे पहले कि हम गिड़गिड़ाते, उसने माफ़ी मांग ली। हम समझे कि आप ड्राईवर हो।

Wednesday, July 27, 2016

अद्भुत थी रे की किस्सागोई


-वीर विनोद छाबड़ा
इतिहास अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा का हो या भारतीय सिनेमा का, अगर उसमें सत्यजीत रे का ज़िक्र नहीं है तो वो अधूरा है। १९७८ के बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में दुनिया भर के फ़िल्मकार जमा थे। बहस हुई कि दुनिया के तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक कौन हैं। अंततः तीन शॉर्टलिस्ट हुए। सत्यजीत रे सर्वश्रेष्ठ उनमें से एक थे। 
वो पहले फ़िल्मकार थे जिन्होंने सिनेमा को कैमरे के माध्यम से देखा और पढ़ा। मेलोड्रामा नहीं भरा। प्रभाव पैदा करने के लिए संगीत को लाऊड नहीं किया। इंसान के अंतर्द्वंत को उसकी काया के बहुत भीतर तक घुस कर कैमरे की आंख से उजागर किया। दृश्य लगभग संवादहीन रहे। 'पाथेर पांचाली' (१९५५) उनकी पहली फिल्म थी जिसने हॉलीवुड में जाकर धूम मचाई। कुछ आलोचक भी रहे। कड़वाहट भरे शब्दों में एक ने कहा कि उसे रे का हाथ से दाल-भात खाता किसान सख्त नापसंद है। इसी श्रंखला के अंतर्गत अपराजित (१९५६) और अपुर संसार (१९५९) को भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर भरपूर सराहा गया।
रे किसी एक जगह ठहरे नहीं। न विषय पर और न ही पात्रों पर। मध्य-वर्गीय समाज भी उनका विषय था और गरीबी-भूख-बेकारी भी। बच्चे और अबोध उनके प्रिय रहे और जासूसी के प्रति लगाव ने भी रे को खासा जिज्ञासु बनाया। वो बहुआयामी शख्सियत के मालिक थे। लेखक भी थे वो। बच्चों के लिए भी बहुत लिखा। इसीलिये उनकी किस्सागोई अद्भुत थी। प्रशंसक उनके लेखन की तुलना अंतोव चेखव और शेक्सपीयर से करते हैं। बहुत अच्छे ग्राफ़िक डिज़ाइनर भी रहे। कई विश्वविख्यात पुस्तकों के मुखपृष्ठ डिज़ाइन किये। इनमें मुख्य हैं 'डिसकवरी ऑफ़ इंडिया' और 'मैनईटर्स ऑफ़ कुमायूं'

निर्देशन के साथ-साथ सिनेमा के हर विभाग में उनका दखल रहा, चाहे संपादन हो या संगीत या छायांकन। अपनी ज्यादातर फिल्मों का स्क्रीनप्ले उन्होंने स्वयं लिखा। उन्होंने ३७ फ़िल्में निर्देशित की। सिर्फ मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित 'शतरंज के खिलाड़ी' और दूरदर्शन के लिए बनायी 'सद्गति' को छोड़ कर उनकी फिल्मों की भाषा बंगाली थी। दुर्भाग्य से इन दोनों हिंदी फिल्मों को उस स्तर की विश्व ख्याति नहीं मिली, जिसके लिए रे विख्यात हैं।
फिल्म को कला और कैमरा का विषय मानने वाले विश्वविख्यात अकीरा कुरासोवा, अल्फ्रेड हिचकॉक, चार्ल्स चैपलिन, डेविड लीन, फेडरिको फेलिनी, जॉन फोर्ड, इंगमार बर्गमन की पंक्ति में रे को भी रखा गया है। यह दुर्लभ सम्मान किसी अन्य भारतीय फ़िल्मकार को नहीं मिला है। 
जलसाघर, देवी, तीन कन्या, चारुलता, नायक, अशनि संकेत, कापुरुष ओ महापुरुष, घरे बाहरे, अभिजान, महानगर, गुपी गायें बाघा गायें, प्रतिद्वंदी, सीमाबद्ध, सोनार केला, जॉय बाबा फेलुनाथ आदि रे की अन्य श्रेष्ठ कृतियां थी। उन्हें और उनकी फिल्मों को बेशुमार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले। २३ अप्रैल १९९२ को मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हें जग-प्रसिद्ध एकेडेमी पुरूस्कार से नवाज़ने उनकी प्रिय अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न आईं थी। रे उस समय कलकत्ता के एक अस्पताल में भर्ती थे। उनकी स्पीच एकेडेमी समारोह के दौरान लाईव टेलीकास्ट हुई। अपूर्व योगदान के लिए १९८४ में उन्हें प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के और १९९२ में भारत रतन दिया गया।

Tuesday, July 26, 2016

नसीर भाई, जोश में होश न गंवाओ।

- वीर विनोद छाबड़ा
ख़बर है कि नसीरूदीन शाह ने कहीं कहा है कि वो राजेश खन्ना को बड़ा एक्टर नहीं मानते।

हम नसीर के बहुत बड़े फैन हैं, उन्हें ग्रेट ऐक्टर मानते हैं। किरदार में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उसकी चमड़ी से अदाकार को अलग करना मुश्किल हो जाता है। इतनी ऊंचाई पर पहुंच कर कभी-कभी इंसान दंभी हो जाता है। हो सकता है कि नसीर के साथ भी ऐसा हुआ है। नसीर साहब मत भूलें कि दंभ इंसान को सिर्फ अर्श से फर्श पर ही पहुंचाता है।
राजेश खन्ना अपने दौर के हेडमास्टर रहे हैं। हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे वो। इस मुकाम पर कोई बिना लियाक़त के यूं तो नहीं पहुंचता है। कभी देखी है आपने उनकी आख़िरी ख़त, आनंद, आराधना, इतेफ़ाक़, अवतार, बावर्ची, आशीर्वाद, पलकों की छांव में आदि। अलावा इनके बेशुमार फ़िल्में हैं जिसमें उनकी परफॉरमेंस ने हर धर्म, वर्ग, समुदाय के हर जेंडर और हर उम्र के करोड़ों लोगों का अपना फैन बना लिया था। उनकी बकवास फ़िल्में भी चल जाती थीं। ऐसी थी उनकी मास अपील। अपने कंधे पर फिल्म उठा कर चलते थे। उन्होंने गेस्ट आर्टिस्ट के तौर पर भी फ़िल्में लिफ्ट की हैं। याद करें अनुराग और अंदाज़ को। और ऐसे ही देशभक्त के एक छोटे से किरदार में वो 'आक्रमण' में भी हिट हुए थे।

नसीर शाह जी हमने राजेश खन्ना की महज बूंद भर तहरीर ही दी है। हम उनके इतने बड़े प्रशंसक हैं कि अल्प नोटिस पर एक मोटा ग्रंथ लिख सकते हैं । आपके बारे में भी लिख सकते हैं। 
लेकिन माफ़ करें जब आप राजेश खन्ना को घटिया बताएंगे तो हमें कोई कितना ही बड़ा ऑफर दे तो हम आप पर लिखने से गुरेज़ करेंगे। हिस्ट्री भी आपको माफ़ नहीं करेगी। हमें अच्छी तरफ से याद है आपने एक बार अभिनय सम्राट के बारे में कहा था - मैं दिलीप कुमार को बड़ा एक्टर नहीं मानता।

Monday, July 25, 2016

गधे के क्रियाकर्म के बहाने

-वीर विनोद छाबड़ा
कहावत है कि वक़्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। इसी के मद्देनज़र एक मालिक गधे को बेटा कहता था। बेचारा गधा तो गधा ठहरा। भरपेट खाना नहीं मिला। लेकिन कई बार मौका मिलने पर भी नहीं भागा। उसे आशा थी कि एक न एक दिन उसके दिन सुधरेंगे। उसने कई बार सुना था। मालिक अपनी बेटी चंपा को चेतावनी दे रहा था - अगर तू पढ़ने पर ध्यान नहीं देगी, तो तेरी शादी इसी गधे से कर दूंगा। इसी कारण उसने मालिक को कभी दुलत्ती नहीं मारी। आखिर ससुर जो ठहरा। 

एक दिन चंपा की बारात आई। वो पिछवाड़े बंधा ही रह गया। लेकिन उसे ख़ुशी हुई, जब  पता चला कि मालिक के पास दहेज़ में नकदी कम पड़ गई। चंपा को मजबूरन वरमाला गधे जैसे गुणों से भरपूर एक मानुष के गले डालनी पड़ी।
मगर वो गधा ही क्या, जो आशा छोड़ दे। उसे पूरी आशा थी कि मैन ऑफ़ दि मैच वही होगा। चंपा अपने गधेनुमा पति से लड़-झगड़ कर वापस आयेगी और फिर चांद सितारों सा आंगन होगा। मगर यह चंपा तो अपने पति से भी बड़ी गधी निकली। कभी वापस न आई।
गधा अब बूढ़ा हो चला था। किसी काम का नहीं रहा। मालिक ने उसे सड़क पर भटकने को छोड़ दिया। जो मिले खाओ और प्रभु के गुण गाओ। यों यहां साल भर पार्टियां चलती हैं। इंसान खाता कम है और फेंकता ज्यादा है। चौपायों की नियति में किसी बेकाबू ट्रक या मोटर के नीचे आकर सद्गति प्राप्त करना होता है।  
और गधा सड़क पर आ गया। ज़िंदगी के इस अंतिम पड़ाव पर उसने आशा न छोड़ी। सूंघता हुआ वो चंपा की गली में जा पहुंचा। उसे देखते हुए दम तो निकलेगा। और वो सोच ही रहा था कि एक ट्रक ने उसे पीछे से ठोक दिया, ठीक चंपा के घर के सामने। वो तत्काल परलोक पहुंच गया।
लेकिन पिक्चर अभी बाकी है। 
चंपा एक अच्छी नागरिक है। कर्तव्य से बंधी महिला है। उसने नगर निगम के मुखिया को फ़ोन मिलाया। बामुश्किल फ़ोन उठा। चंपा ने सूचित किया कि उनके घर के सामने एक गधा परलोक सिधार गया है। निगम मुखिया ने चिर-परिचित बेरुखी दिखाई। तो मैं क्या करूं? निगम ने गधों के क्रियाकर्म करने का ठेका नहीं ले रखा है। चूंकि आपके घर के सामने गधा मरा है तो क्रिया कर्म भी आप ही को करना होगा।

Sunday, July 24, 2016

ईश्वर तो आये थे।

- वीर विनोद छाबड़ा 
उस दिन भयंकर आंधी-तूफ़ान आया और साथ में तेज बारिश भी हुई । कई दिन तक रुकी नहीं। शहर में पानी पानी हो गया। लोग घर छोड़ कर किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में निकल पड़े।
लेकिन चौधरी जी ने फैसला ईश्वर पर छोड़ दिया। सरकार ने भी अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं रख छोड़ी। सबसे पहले उन्हें लेने एक कार आई। चौधरी जी ने मना कर दिया। ईश्वर मेरे साथ है।
दूसरे दिन पानी सात फिट और चढ़ गया। चौधरी जी दूसरे माले पर चढ़ गए। उनकी मदद के लिए एक नाव आई। मगर चौधरी जी ने आकाश की और ईशारा कर दिया। भोले बाबा हैं ऊपर, मेरी रक्षा कर रहे हैं।
तीसरे दिन तो गज़ब हो गया। पानी दस फिट और चढ़ गया। चौधरी जी छत की ओर भागे। एक हेलीकाप्टर आया। उसने रस्सी लटकाई। लेकिन चौधरी जी ने मना कर दिया। मेरा रब मेरे दिल विच है। मुसीबत कितनी ही बड़ी क्यों न हो, मैनूं कुछ नहीं होण दा। फ़िकर दी गल नहीं है।
और वही हुआ, जिसका डर था। चौथे और पांचवें दिन पानी और ऊपर चढ़ा। चौधरी जी परलोक वासी हो गए।
ईश्वर के दरबार में प्रवेश के लिए बहुत लंबी लाईन थी। लंबी प्रतीक्षा के बाद चौधरी जी प्रस्तुत किये गए। बहुत गुस्से में थे चौधरी जी। मैं आपके सहारे तीन दिन तक लटका रहा। दिन-रात आपको नाम लिया। हर तरह की मदद ठुकरा दी। लेकिन आप मुझे बचाने नहीं आये। आपने मुझे धोखा दिया। अपना ही नाम आपने बदनाम किया।

Saturday, July 23, 2016

शालीन कॉमेडियन देवेन वर्मा।

-वीर विनोद छाबड़ा
हर कॉमेडियन का अलग अंदाज़ होता है। देवन वर्मा ने हास्य के सृजन के लिए सिर्फ़ चुटीले संवादों का सहारा नहीं लिया। उन्होंने मुख्यतया बॉडी लैंगुएज और चेहरे के एक्सप्रेशन से हास्य का बोध कराया। इसीलिए उन्हें कॉमेडी के लिए अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ा। सब कुछ सहज और स्वतः होता गया। संवाद अंडरप्ले किये। एक्शन में फूहड़पन नहीं दिखा।
याद आता है यश चोपड़ा की 'कभी-कभी का वो दृश्य। देवेन वर्मा से ऋषिकपूर पूछते हैं - नहाने के लिए गरम पानी कहां मिलेगा?
देवेन वर्मा दूसरी ओर इशारा करते हुए बड़बड़ाते हैं - यहां अट्ठाईस साल हो गए हमें नहाये हुए और इनको नहाने के लिए गरम पानीऋषि ने देवेन के देहांत पर कहा था कि वो बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और किसी भी विषय पर पूरी अथॉरिटी के साथ बात करने में सक्षम थे।  
उनकी टाइमिंग गज़ब की थी। इसका प्रमाण है बेस्ट कॉमेडियन के लिए तीन-तीन फिल्मफेयर अवार्ड उनकी झोली में गिरना। पहली बार 'चोरी मेरा काम' और फिर 'चोर के घर चोर' और तीसरी बार गुलज़ार की 'अंगूर' के लिए। गुलज़ार ने सदैव देवेन को कॉमेडियन नहीं एक्टर माना। 'अंगूर' शेक्सपीयर की कॉमेडी ऑफ़ एरर्स पर आधारित थी। इसमें संजीव के साथ देवेन भी डबल रोल में थे।
देवेन वर्मा की मांग साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में सर्वाधिक थी। लुक में वो किसी  हीरो से कम नहीं थे। कॉमेडी के साथ-साथ उन्होंने ने मिलन, देवर और बहारें फिर भी आएंगी में गंभीर रोल किये। सुप्रसिध्द अभिनेता अशोक कुमार की पुत्री रूपा गांगुली से विवाह हुआ। लेकिन अशोक कुमार के दामाद होने का उन्होंने कभी लाभ नहीं लिया। अपनी प्रतिभा और अदायगी के बूते ही आगे बढ़ते रहे। साली प्रीति गांगुली के साथ भी देवेन ने कई फ़िल्में की।

देवेन ने लगभग १४४ फिल्मों में अभिनय के साथ साथ दाना पानी, चटपटी, बेशरम, नादान, यकीन और बड़ा कबूतर भी निर्मित व निर्देशित की। परंतु उन्हें औसत सफलता ही मिल पायी। कमाई का एक बड़ा हिस्सा व्यर्थ गया। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया कि मति मारी गई थी। फिल्मों के निर्माण में व्यस्तता के कारण उन्हें अभिनय के कई अनुबंध छोड़ने पड़े। 
उस दौर के लगभग सभी बड़े नायकों, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, धर्मेंद्र, शशि कपूर, गुरुदत्त, सुनील दत्त, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, राजकुमार, जीतेंद्र, अमिताभ बच्चन आदि के साथ देवेन का दिखना प्रमाण है कि बड़े नायकों के साथ उनकी अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी थी। सहजता, शालीनता और परफेक्ट टाइमिंग के कारण देवेन गुलज़ार, बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुख़र्जी, बीआर चोपड़ा, यश चोपड़ा आदि सभी नामी निर्देशकों की बरसों तक खास पसंद रहे।

देवेन के कैरियर की पहली फिल्म थी यश चोपड़ा के निर्देशन में 'धर्मपुत्र' और तीसरी थी 'कव्वाली की रात' थी, जिसे प्यारेलाल संतोषी ने निर्देशित किया था। बरसों बाद नब्बे के दशक में संतोषी के पुत्र राजकुमार संतोषी में उन्हें 'अंदाज़ अपना अपना' में निर्देशित किया। यह बहुत सफल कॉमेडी फिल्म थी।

Friday, July 22, 2016

बिल्लू मास्टर।

- वीर विनोद छाबड़ा
बिल्लू बारबार हेयर कटिंग सलून पर उस दिन बहुत भीड़ थी। खास तौर पर बच्चों में बहुत उत्साह था। लेटेस्ट कटिंग की सबको चाह थी। संडे का दिन था और ईद आने वाली थी। कौन किसके साथ है, पता ही नहीं चल रहा था।
एक हैंडसम आदमी ने बाल कटवाए। शेव भी बनवाई और बाल भी डाई करवाए। फिर उसने एक दस साल के बच्चे को सीट पर बैठा दिया - बिल्लू मास्टर, ज़रा बढ़िया सा, लेटेस्ट स्टाईल। अपना ही बच्चा है। मैं अभी कीमा बनवा कर थोड़ी देर में लौटता हूं।
बिल्लू मास्टर ने सर हिला दिया। बढ़िया कटिंग की और पॉवडर-क्रीम भी लगा दिया। सोचा इसका बाप मोटा ग्राहक है। पैसा भी बढ़िया देगा। उसने बच्चे को बेंच पर बैठा दिया - अभी तुम्हारे अब्बू आते ही होंगे।
बच्चे ने कहा - लेकिन, मेरे अब्बू यहां हैं ही नहीं। वो तो दिल्ली में हैं।
बिल्लू मास्टर ने इत्मीनान से कहा - कोई बात नहीं। फिर वो चाचू होंगे। जल्दी आते होंगे।
बच्चा हैरान हुआ - लेकिन मेरे तो कोई चाचू भी नहीं हैं।
बिल्लू मास्टर आशावादी थे - फिर वो पड़ोसी होंगे। बता गए हैं कीमा लेकर लौटता हूं। 
बच्चा नाराज़ हुआ - मैं यहां अकेला आया हूं। मुझे जल्दी जाना है। कितना पैसा हुआ?

Thursday, July 21, 2016

शादी की साल गिरह।

- वीर विनोद छाबड़ा
शादी की सालगिरह मनाने के भी खूब फायदे हैं। पहले लोग पच्चीसवीं मनाते थे।
कुछ खुशकिस्मत पचासवीं तक पहुंच जाते थे। भई, असली तो हम इसी को मानते हैं। पचास सावन और इतने ही पतझड़ देखे। कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं होती, चेहरे की अनगिनित गहरी झुर्रियां ही गुज़ारा हुआ इतिहास बयान कर देती है।
कितनी पीढ़ा झेली है और कितनी खुशियां। और अगर तब तक होशो-हवास दुरुस्त रहें, अर्थात सुनाई, दिखाई और सुझाई दे तो कहना ही क्या? ऐसे ही एक बुज़ुर्ग हमें नाराज़ मिले। जो देखो फूल-पत्ती लिए चला आ रहा है।
हमने कहा क्या - करेंगे आईटम लेकर? सब पोते-पोतियां मिल-बांट लेंगे।
इधर हम देख रहे हैं कि कुछ लोग हर पांच साल पर जश्न मना रहे हैं। पांचवीं, दसवीं, पंद्रहवीं और बीसवीं....भी मना रहे हैं। फैशन चल निकला है। कोई खास घाटे का सौदा भी नहीं है। जितना खर्चा किया उसका आधा तो गिफ्ट से मेकअप हो जाता है। बॉस और उनकी मेमसाब की भी इसी बहाने दावत हो जाती है। भूले हुए दोस्त-यार और नाते-रिश्तेदार मिलते हैं।
सबसे ज्यादा एडवांटेज पत्नी का रहता है। ससुराल पर तो कब्ज़ा हो ही चुका होता है, मायके वालों पर भी धौंस जम जाती है। देखा, कितना रुतबा है समाज में हमारे उनका। बहनें तो जल-भून कर राख हो ही जाती हैं।
लेकिन हमें वो लोग अच्छे लगते हैं, जो हर साल सालगिरह मनाते हैं। घूमते हैं, सिनेमा देखते हैं और किसी रेस्तरां में डिनर करते हैं।

Wednesday, July 20, 2016

खाली हाथ चले गए चितलकर

-वीर विनोद छाबड़ा
सी०रामचंद्र के नाम से मशहूर संगीतकार को फ़िल्मी दुनिया में चितलकर के नाम से पहचाना जाता था। बनने आये थे हीरो। मगर किस्मत में संगीतकार बनना लिखा था। उन्हें सर्वप्रथम भगवान दादा की सी ग्रेड फिल्म सुखी जीवन (१९४३) में नोटिस किया गया। और पराकाष्ठा पर पहुंचे 'अनारकली' (१९५३) से। याद करिये...यह ज़िंदगी उसी की है...ज़िंदगी प्यार की दो चार घडी होती है...जाग दर्दे इश्क़ जाग
चितलकर के जीवन कई अजीबो-गरीब घटनाएं हुई। मशहूर फ़िल्मकार और अभिनेता गजानंद जागीरदार एक फिल्म बना रहे थे। किसी ने सी०रामचंद्र का नाम सुझाया। कई धुनें सुनीं। लेकिन खुश नहीं हुए। अच्छी तो हैं, मगर मज़ा नहीं आया। वो एक नया संगीतकार आया है, चितलकर। बड़ी प्रशंसा हो रही है आजकल उसकी है। कुछ उसकी तरह का बढ़िया और ताजा सुनाओ न। चितलकर ने अगले दिन कुछ और धुनें सुनायीं। जागीरदार असंतुष्ट रहे। यह चितलकर जैसी धुनें नहीं हैं। इस बार चितलकर तीन दिन बाद लौटे। उन्होंने पहले दिन वाली धुनें पुनः सुनायीं और बताया कि ये चितलकर जैसी हैं। मानो मोगांबो खुश हुआ। तब सी.रामचंद्र ने उन्हें बताया कि दरअसल वही चितलकर हैं। बेचारे जागीरदार बहुत शर्मिंदा हुए।
Asha Bhonsle & CRamchandra
अवसाद के दौर से निकले दिलीप कुमार को फ़ौरन कोई हलकी-फुल्की सुखांत कॉमेडी चाहिए थी। एसएम नायडू ने उन्हें 'आज़ाद' ऑफर की। दिलीप उछल पड़े। संगीत के लिए पसंदीदा नौशाद से बात हुई। महीने भर में छह गाने चाहिए। मगर नौशाद ने मना कर दिया। इतने कम वक़्त में मुमकिन नहीं है। उन्हें मुंहमांगी कीमत ऑफर हुई। नौशाद बिगड़ गए। अमां, कोई किरयाने की दुकान समझ रखी है क्या? तब चितलकर संपर्क साधा गया। उन्हें चैलेंज पसंद थे। छह दिन में छह गाने रिकॉर्ड हो गए। अपलम-चपलम, चपलायी रे तेरी दुनिया को छोड़ कर.कितना हसीं है या मौसमये दूसरा गाना लता के साथ उन्होंने खुद गाया था। चितलकर ने इसके अलावा भी कई गाने गाये हैं। मेरे पिया गए रंगून...शोला जो भड़के...गोरे गोरे ओ बांके छोरे... 
उन्होंने ने १०४ फिल्मों में संगीत दिया। उन्हें श्रेय दिया जाता है कि हिंदी सिनेमा में वेस्टर्न म्यूज़िक वही लेकर आये। ईना मीना डीका... उन्हीं की देन है। उनके कंपोज़ ये गाने भी रिकॉर्ड-ब्रेकर रहे - आधा है चंद्रमा रात आधीशाम ढ़ले खिड़की तले... गोरी सूरत दिल के कालेदिल लगा के हम ये समझेमुझ पर इलज़ाम बेवफ़ाई का हैदेख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान। मशहूर संगीतकार मदन कभी उन्हीं के असिस्टेंट हुआ करते थे। 
Lata & C.Ramchandra
अरविंद केजरीवाल ने बतौर दिल्ली सीएम जब पहली बार शपथ ली थी तो उन्होंने 'पैगाम' का एक गाना सुनाया था - इंसान का इंसान से हो भाई चारा... इसे चितलकर ने ही कंपोज़ किया था।
उस दौर में चितलकर और लता जी की जोड़ी बहुत मशहूर थी। राधा न बोले न बोले न बोले रे...मैं कैसे आऊं जमुना के तीर...ये ज़िंदगी उसी कि है...। लता जी की किसी से स्थाई दोस्ती कभी नहीं रही। चितलकर के साथ भी यही हुआ। एक-दूसरे का मुर्दा मुंह तक न देखने के कस्मे-वादे हो गए। इसके पीछे कहानियां बताई गईं। चितलकर का कहना था कि लता उनसे शादी करना चाहती थीं। लेकिन वो शादी-शुदा थे। मना कर दिया। हालांकि कुछ माह बाद चितलकर ने दूसरी शादी कर ली। लता के पक्ष का कथन है कि चितलकर के ऑर्केस्ट्रा में एक