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वीर विनोद छाबड़ा
घर में मेहमान बहुत आते थे। टाईम कोई नहीं देखता था। अब कोई सुबह नाश्ते के टाईम
चला आया तो कोई दिन में लंच के टाईम आ गया। डिनर टाईम पर आने वालों की कमी नहीं थी।
इसमें अपने पड़ोसी भी होते थे और दूसरे मोहल्लों से आये भी।
हाथ में अटैची वाले मेहमान के बारे में तो बाकायदा नहाते-धोते भी थे। सरहद पार
वाले भी कभी चले चले आते थे। उन्हें नाश्ता, लंच, डिनर सब चाहिए होता था।
अब पिताजी को क्या मालूम रसोई में दाल है या नहीं। आटा कितना है? चावल की पोजीशन क्या
है? दूध बचा है कि नहीं चीनी और चाय की पत्ती पिछली बार कब आई थी। बस आर्डर दे दिया।
नाश्ता लाओ, खाना लाओ।
मां सुबह से शाम तक रसोई में खपती थी। हर वक़्त बड़बड़ करते हुए ही देखा। लेकिन सब
मैनेज कर लेती। इसमें हमभाई-बहनों का योगदान भी कम नहीं रहता था। मेहमान को भनक नहीं
लगने जाती कि घर में कोई कमी है या मां नाखुश है, या वो बेमन से बना
रही है। गुस्सा तो पिताजी पर करती, मेहमान पर नहीं।
कोई निराश या खाली पेट नहीं गया। वाह! पराठे के साथ भरवा भिंडी और सफ़ेद झक दही।
साथ में लाल-हरी मिर्च और आम का अचार भी। क्या बात है! जाते-जाते तारीफ़ ही कर जाते।
मां अपने सारे ग़म और परेशानियां भूल जाती। मेहमान हो तो ऐसा। तारीफ़ पे तारीफ़ कर रहा
है।
दूसरे शहर या सरहद पार वालों पर तो न्यौछावर हो जाती। रुकिए ज़रा। खुले मुंह वाली
शीशी में थोड़ा अचार दाल देती थी। कभी कभी आम और गाजर का मुरब्बा भी। फिर शीशी के मुंह
पर कागज़ रख कर ढक्कन कस कर बंद कर देती। लिफाफा भी डबल। अब लीक नहीं होगा। बस शीशी
सीधी रखियेगा।
हमारे घर में तो वो गुज़रे दिन वापस नहीं आये। बस यादें ही बाकी हैं।
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19-07-2016 mob 7505663626
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