-वीर विनोद छाबड़ा
पिछली सदी के चालीस का दशक। मो. रफ़ी नाम का एक नौजवान अमृतसर
के कोटला सुल्तानपुर से मायानगरी बंबई आया था बड़ा सिंगर बनने। स्ट्रगल के दिन थे। मुफ़लिसी
में ज़िंदगी कट रही थी। रोज़ कुआं खोदो और रोटी खाओ। नौशाद साहब बड़े संगीतकार थे। काम
की तलाश में उन्हीं के इर्द-गिर्द मंडराया करते रफ़ी। एक दिन उन्हें नौशाद साहब का बुलावा
आया कि एक कोरस में खड़े होना है। रफ़ी की जेब में कुछ ही पैसे थे और रिकॉडिंग स्टूडियो
दूर। रफ़ी को यह मौका छोड़ना नहीं था। स्ट्रगल के दिनों में मौका चूकने का मतलब आगे बढ़ने
की बजाये दो कदम पीछे और रात भूखा सोना।
बहरहाल, रफ़ी रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंचे।
चूंकि नौशाद साहब जलवा था,
अतः उम्मीद भी थी कि रेकॉर्डिंग से इतना
मेहनताना तो मिल ही जाएगा,
जिससे दो दिन की रोटी का जुगाड़ हो सके।
मगर किस्मत की मार। किन्हीं कारणों से रिकॉर्डिंग कैंसिल हो गयी। सब घरों को लौट गए।
मगर रफ़ी बैठे रहे।
नौशाद साहब ने देखा कि एक बंदा स्टूडियो के बाहर सीढ़ियों पर
उदास बैठा है। चेहरे पर निराशा की गहरी लकीरें खिंची हैं। उन्होंने वज़ह पूछी। रफ़ी ने
थोड़ा झिझकते हुए बताया कि मेरी जेब में कुछ ही पैसे थे जो यहां तक आने के किराए में
खर्च हो गया। उम्मीद थी कि रिकॉर्डिंग के बाद पैसा मिल जायेगा। मगर रिकॉर्डिंग ही कैंसिल
हो गयी। यही फ़िक्र है कि अब वापस कैसे जाऊं? सोच रहा हूं कि कल फिर आना
ही है तो यहीं कहीं सो कर रात बिता लूं। कल रेकॉर्डिंग तो होनी ही है और पैसे भी मिल
ही जायेंगे। यह सुन कर नौशाद साहब को तरस आ गया। उन्होंने जेब में हाथ डाला और एक रूपये
का सिक्का निकाल कर रफ़ी की हथेली पर रख दिया।
कई साल गुज़र गए। रफ़ी अब रफ़ी साहब हो चुके थे। बड़ा नाम था उनका।
उन्हें बात करने तक की फुर्सत नहीं थी। एक दिन सुबह-सुबह का वक़्त। नौशाद साहब ने देखा
कि रफ़ी चले आ रहे हैं। उनके हाथ में एक बड़ा पैकेट था, बढ़िया से रंगीन कागज़ में लिपटा हुआ। नौशाद साहब ने आने का सबब
पूछा और पैकेट की और इशारा किया - और यह क्या है भाई?
रफ़ी साहब ने कहा कि आप खुद खोल कर देखें। तनिक झिझक के साथ नौशाद
साहब ने पैकेट पर से कागज़ हटाया। देखा वो एक फोटोफ्रेम है और उसमें एक रूपये का सिक्का
चिपका हुआ था। नौशाद साहब हैरान हुए - बरखुरदार, इसमें क्या खास बात है? और यह मुझे क्यों दे रहे हो?
रफ़ी साहब ने उन्हें बरसों पहले की वो रिकॉर्डिंग कैंसिल होने
की बात याद दिलाई। उस दिन मेरे पास घर लौटने तक के लिए पैसे नहीं थे। आपने मुझे एक
रूपये का सिक्का दिया था। मुझे आपकी वो इनायत बहुत अपील कर गयी। मैंने वो रुपया मैंने
खर्च नहीं किया था। किसी तरह पैदल ही घर चला आया था। इस फ्रेम में वही रुपया है। आज
आपको लौटने आया हूं। नौशाद साहब निशब्द रह गए। आंखों से अविरल अश्रु धारा बह निकली।
रफ़ी साहब एक सच्चे मददगार होने के अलावा बेहद भावुक भी थे। मन
तड़पत हरी दर्शन को आज.… और बाबुल की दुआएं लेती जा.…बताते हैं वो इन गानों की
रिकॉर्डिंग पर फूट फूट कर रोये थे। लंबी गाथा है और पृष्ठ कम। लेकिन वो निर्विवाद बहुआयामी
गायक थे। उन्हें आजतक कोई छू नहीं पाया है। सर्वश्रेष्ठ गायन के लिए फिल्मफेयर में
रफ़ी २१ बार नॉमिनेट हुए और छह बार वो जीते - चौहदवीं का चांद हो...तेरी प्यारी प्यारी
सूरत को किसी की नज़र न लगे...चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे...बहारों फूल बरसाओ... दिल
के झरोखों में तुझको बैठा कर...क्या हुआ तेरा वादा...
क्या हुआ तेरा वादा... के लिए उन्हें नेशनल अवार्ड भी मिला।
उन्हें पदमश्री से भी नवाज़ा गया। गांधी जी की मृत्यु के ४८ घंटे में उन्होंने गाया
था - सुनो सुनो ओ दुनिया वालों बापू की यह अमर कहानी...इसके लिए आज़ादी की पहली वर्षगांठ
पर उन्हें सिल्वर मेडल मिला। होंडा/स्टारडस्ट ने एक फ़ंक्शन में उन्हें सदी का गायक
घोषित किया और सीएनएन/आईबीएन के एक पोल सर्वे में उन्हें हिंदी सिनेमा की ग्रेटेस्ट
वॉयस चुना गया। उनके चाहने वाले उनके लिए दादा साहब फाल्के और भारत रतन की मांग करते
रहते हैं।
रफ़ी साहब २४ दिसंबर १९२४ को पैदा हुए थे और ३१ जुलाई १९८० को
इंतकाल फरमा गए। आज भी करोड़ो के दिलों में रहते हैं। जब तक फ़िज़ा है रफ़ी रहेंगे। अमर
आवाज़ें कभी नहीं मरतीं। हर साल उनके जन्मदिन और पुण्यतिथि पर मुल्क भर में फ़ंक्शन होते
हैं...सुहानी रात ढल चुकी...बिछुड़े सभी बारी बारी…कर चले हम जानो तन साथियों…ये ज़िंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफ़सोस हम न होंगे…
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Published in Navodaya Times dated 02 July 2016
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Lucknow - 226016
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वीर विनोद छाबड़ा साहब ने यह एक बहुत ही शानदार लेख लिखा है। उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
ReplyDeleteवीर विनोद छाबड़ा साहब ने यह एक बहुत ही शानदार लेख लिखा है। उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
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