-वीर विनोद छाबड़ा
बेमिसाल अदाकार रहे
संजीव कुमार। जवानी में भी बुड्ढे का रोल बड़ी सहजता से अदा कर दिया करते थे। थिएटर
करते-करते साठ के दशक में फिल्मों में पहुंचे। हम हिंदुस्तानी, आओ प्यार करें,
निशान, अली बाबा चालीस चोर, स्मगलर, राजा और रंक,पति-पत्नी,
बदल, नौनिहाल आदि कई फ़िल्में कीं। हरिभाई जेठालाल जरीवाला से से संजीव
कुमार बन गए। लेकिन फिल्मवालों के लिए हरी भाई ही रहे, अंत तक। हरनाम सिंह
रवैल ने उन्हें 'संघर्ष' में निगेटिव रोल ऑफर किया। जानी राजकुमार
इसे रिजेक्ट कर चुके थे। सामने थे अपने आइडियल युसूफ भाई उर्फ़ दिलीप कुमार। संजीव ने
झपट लिया। कैरियर की शुरुआत में ही अदाकारी की कूवत दिखाने का बेहतरीन मौका था। बहुत
बड़ा चैलेंज। और पूरा दम-ख़म उड़ेल दिया। पब्लिक और क्रिटिक्स ने उन्हें बहुत सराहा।
दिलीप विरोधी एक लॉबी
ने घोषणा की कि कद्दावर युसूफ भाई को असहज कर दिया इस नए एक्टर संजीव ने। उस ज़माने
में धारणा थी कि दिलीप कुमार को अपने से बेहतर कोई बर्दाश्त नहीं है। अपने ऊंचे कद
का इस्तेमाल करके ऐसे सीन कटवा देते हैं। लेकिन इसके उलट दिलीप कुमार सीन की बेहतरी
के लिए कुछ सुझाव ज़रूर देते थे। अगर वो निगेटिव धारणा वाले होते तो संजीव के वो सारे
सीन और शॉट्स शॉट कटवा देते जिसमें संजीव उन पर भारी दिखे। कुछ भी हो, यह तो तय हो गया था
कि बड़े-बड़ों की छुट्टी करने के लिए एक उम्दा अदाकार मैदान में आ गया है।
Sanjeev & Dilip in Sangharsh |
संजीव को अगली बार
दिलीप कुमार के सामने खड़े होने का मौका मिला सुभाष घई निर्देशित 'विधाता' (१९८२) में। अबु बाबा
का किरदार। लंबाई के हिसाब से छोटा मगर संजीव के लिए महत्वपूर्ण तो दिलीप की उपस्थिति
थी। यह वो दौर था जब दिलीप कुमार कैरियर की दूसरी पारी शुरू कर चुके थे और संजीव बेहतरीन
एक्टिंग की दुनिया में मज़बूत खंभा थे। जवानी में ही कोशिश, शोले, आंधी, मौसम और त्रिशूल जैसी
फिल्मों में बूढ़े की पावरफुल परफॉरमेंस दे चुके थे। कई बड़े अवार्ड जीत चुके थे। यह
एक छोटा, मगर असरदार किरदार था। इसे खासकर संजीव के सिनेमा में ऊंचे कद
और एक्टिंग की गहराई के मद्देनज़र गढ़ा गया था। परफॉरमेंस में दिलचस्पी रखने वालों को
बस इंतज़ार था कि दोनों कब आमने-सामने होते हैं और एक्टिंग का कौन सा नया आयाम स्थापित
होता है।
अधेड़ अबु बाबा की ज़िम्मेदारी
थी कुणाल (संजय दत्त) की परवरिश। दिलीप-संजीव का कई शॉट में आमना-सामना हुआ। सब ठीक
चला। आखिर वो सीन आ गया जिसका सबको इंतज़ार था। संजय दत्त एक गरीब मछुआरिन से शादी करना
चाहता है, मगर दादा शमशेर (दिलीप कुमार) को सख़्त ऐतराज़ है। अबु बाबा संजय
का साथ देते हैं। बहस बहुत गंभीर और तीव्र हो जाती है। हाई वोल्टेज ड्रामा। दिलीप कहते
हैं -आप अपनी हैसियत से बहुत बढ़ कर बात कर रहे हैं।
Dilip Kumar |
संजीव पलट कर जवाब
देते हैं - आप अपनी हैसियत से बहुत गिर कर बात कर रहे हैं।
आख़िर में दिलीप उन्हें
नौकरी से अलग करते हैं और अबु बाबा बआवाज़े बुलंद एलान करते हैं - जाओ तुम मुझे क्या
निकालोगे, मैं ही तुम्हें मालिक की नौकरी से अलग करता हूं।
गौरतलब है कि इस डायलॉग
के पूरा होने से पहले ही दिलीप कुमार सीन से निकल जाते हैं। दो राय नहीं कि इस ड्रामे
में जीत और तमाम तालियां संजीव के हिस्से में गईं। रिलीज़ होने से पहले कई एक्सपर्ट
का दावा था दिलीप इस ड्रामे को हटवा देंगे। और कद्दावर दिलीप के लिए कोई बड़ी बात नहीं
थी। मगर ऐसा नहीं हुआ। ये ड्रामा और ये डायलॉग फ़िल्म की ज़रूरत ही नहीं 'जान' थे। ये संजीव कुमार
की जीत नहीं थी, अदाकारी की बेहतरीन मिसाल थी। जब दो ग्रेट आमने-सामने होते हैं
तो ऐसा ही कुछ अजूबा होता है। बेस्ट सहअभिनेता के फिल्मफेयर अवार्ड के लिए वो नॉमिनेट
हुए लेकिन बाज़ी शम्मीकपूर के हाथ लगी।
इससे पहले १९७४ में
दिलीप द्वारा नकारी 'नया दिन नई रात' को परफॉर्म करके संजीव
खासा नाम कम चुके थे। एक बहस भी छिड़ी थी। अगर दिलीप कुमार इसे करते तो क्या संजीव से
बेहतर कर पाते?
Sanjeev Kumar |
संजीव कुमार ने १६३
फ़िल्में की हैं। दस्तक व कोशिश के लिए नेशनल अवार्ड मिला और आंधी व अर्जुन पंडित के
लिए फिल्मफेयर अवार्ड। शिकार के लिए भी उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर फिल्मफेयर मिला
था।
०९ जुलाई १९३७ को जन्मे
संजीव कुमार बचपन से ही दिल के मरीज़ थे। यह उनकी खानदानी बीमारी थी। लंदन से बाईपास
सर्जरी कराके लौटे थे। ये ट्रेजडी नहीं तो क्या है कि उन्होंने ६०-६५ से ज्यादा उम्र
वाले बेशुमार किरदार किये, लेकिन खुद महज़ ४७ साल की उम्र में ०६ नवंबर १९८५ में उनका हार्टफेल
हो गया। इतनी कम उम्र में ही बहुत ऊंचा मयार हासिल कर लिया। अगर जल्दी न गए होते तो
शायद सदी के महानायक वही होते।
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Published in Navodaya Times dated 13 July 2016
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