-वीर विनोद छाबड़ा
हर कॉमेडियन का अलग
अंदाज़ होता है। देवन वर्मा ने हास्य के सृजन के लिए सिर्फ़ चुटीले संवादों का सहारा
नहीं लिया। उन्होंने मुख्यतया बॉडी लैंगुएज और चेहरे के एक्सप्रेशन से हास्य का बोध
कराया। इसीलिए उन्हें कॉमेडी के लिए अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ा। सब कुछ सहज और
स्वतः होता गया। संवाद अंडरप्ले किये। एक्शन में फूहड़पन नहीं दिखा।
याद आता है यश चोपड़ा
की 'कभी-कभी का वो दृश्य। देवेन वर्मा से ऋषिकपूर पूछते हैं - नहाने के लिए गरम पानी
कहां मिलेगा?
देवेन वर्मा दूसरी
ओर इशारा करते हुए बड़बड़ाते हैं - यहां अट्ठाईस साल हो गए हमें नहाये हुए और इनको नहाने
के लिए गरम पानी…ऋषि ने देवेन के देहांत
पर कहा था कि वो बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और किसी भी विषय पर पूरी अथॉरिटी के साथ
बात करने में सक्षम थे।
उनकी टाइमिंग गज़ब की
थी। इसका प्रमाण है बेस्ट कॉमेडियन के लिए तीन-तीन फिल्मफेयर अवार्ड उनकी झोली में
गिरना। पहली बार 'चोरी मेरा काम' और फिर 'चोर के घर चोर'
और तीसरी बार गुलज़ार की 'अंगूर' के लिए। गुलज़ार ने
सदैव देवेन को कॉमेडियन नहीं एक्टर माना। 'अंगूर' शेक्सपीयर की कॉमेडी
ऑफ़ एरर्स पर आधारित थी। इसमें संजीव के साथ देवेन भी डबल रोल में थे।
देवेन वर्मा की मांग
साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में सर्वाधिक थी। लुक में वो किसी हीरो से कम नहीं थे। कॉमेडी के साथ-साथ उन्होंने
ने मिलन, देवर और बहारें फिर भी आएंगी में गंभीर रोल किये। सुप्रसिध्द
अभिनेता अशोक कुमार की पुत्री रूपा गांगुली से विवाह हुआ। लेकिन अशोक कुमार के दामाद
होने का उन्होंने कभी लाभ नहीं लिया। अपनी प्रतिभा और अदायगी के बूते ही आगे बढ़ते रहे।
साली प्रीति गांगुली के साथ भी देवेन ने कई फ़िल्में की।
देवेन ने लगभग १४४
फिल्मों में अभिनय के साथ साथ दाना पानी, चटपटी, बेशरम, नादान, यकीन और बड़ा कबूतर
भी निर्मित व निर्देशित की। परंतु उन्हें औसत सफलता ही मिल पायी। कमाई का एक बड़ा हिस्सा
व्यर्थ गया। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया कि मति मारी गई थी। फिल्मों के निर्माण
में व्यस्तता के कारण उन्हें अभिनय के कई अनुबंध छोड़ने पड़े।
उस दौर के लगभग सभी
बड़े नायकों, दिलीप कुमार, संजीव कुमार,
धर्मेंद्र, शशि कपूर, गुरुदत्त, सुनील दत्त,
राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, राजकुमार, जीतेंद्र, अमिताभ बच्चन आदि के
साथ देवेन का दिखना प्रमाण है कि बड़े नायकों के साथ उनकी अंडरस्टैंडिंग बहुत अच्छी
थी। सहजता, शालीनता और परफेक्ट टाइमिंग के कारण देवेन गुलज़ार, बासु चटर्जी,
ऋषिकेश मुख़र्जी, बीआर चोपड़ा, यश चोपड़ा आदि सभी नामी निर्देशकों की बरसों
तक खास पसंद रहे।
देवेन के कैरियर की
पहली फिल्म थी यश चोपड़ा के निर्देशन में 'धर्मपुत्र'
और तीसरी थी 'कव्वाली की रात' थी, जिसे प्यारेलाल संतोषी
ने निर्देशित किया था। बरसों बाद नब्बे के दशक में संतोषी के पुत्र राजकुमार संतोषी
में उन्हें 'अंदाज़ अपना अपना' में निर्देशित किया।
यह बहुत सफल कॉमेडी फिल्म थी।
वक़्त कभी एक सा नहीं
रहा। दर्शकों की रूचि परिवर्तित हुई। नए और जवान चेहरे आ गए। देवेन के कैरियर का ढलान
भी शुरू हो गया। इससे पहले कि उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाता, उन्होंने फिल्मों से
अलविदा कह दिया और आराम की ज़िंदगी जीने के लिए पुणे शिफ्ट हो गए। देवर, यकीन और बेशर्म आदि
कई फिल्मों में उनके साथ रही उनकी अच्छी पारिवारिक मित्र शर्मीला टैगोर बताती थीं कि
पुणे जाने के बाद देवेन बहुत बदल गए। उनके आसपास नृत्य करता स्वाभाविक हास्य गायब हो
गया। तन्हा और अपने में डूबे मिले।
देवेन ने अभिनय के
साथ-साथ अमजद खान के सेक्रेटरी की जॉब भी कुछ समय तक की। उन्होंने १४९ फिल्में कीं।
कुछ यादगार फ़िल्में हैं - सुहागन, अनुपमा, संघर्ष, मोहब्बत ज़िंदगी है,
ख़ामोशी, बुड्ढा मिल गया, मेरे अपने,
ज़िंदगी, आदमी सड़क का, खट्टा-मीठा, सबसे बड़ा रुपैया,
गोलमाल, प्रेम विवाह, सौ दिन सास के,
बेमिसाल, नास्तिक, रंगबिरंगी, दिल तो पागल है,
इश्क और कलकत्ता मेल।
गुजराती देवेन वर्मा
का जन्म २३ अक्टूबर १९३७ को पुणे में हुआ था। शिक्षा दीक्षा भी पुणे में हुई थी और
०२ दिसंबर २०१४ को ७७ साल की उम्र में आखिरी सांस भी पुणे में ही ली। उन्हें किडनी
और दिल की बीमारी थी।
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Published in Navodaya Times dated 23 July 2016
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