-वीर विनोद छाबड़ा
कहावत है कि वक़्त पड़ने पर गधे को भी
बाप बनाना पड़ता है। इसी के मद्देनज़र एक मालिक गधे को बेटा कहता था। बेचारा गधा तो गधा
ठहरा। भरपेट खाना नहीं मिला। लेकिन कई बार मौका मिलने पर भी नहीं भागा। उसे आशा थी कि एक न एक दिन उसके दिन सुधरेंगे। उसने
कई बार सुना था। मालिक अपनी बेटी चंपा को चेतावनी दे रहा था - अगर तू पढ़ने पर ध्यान
नहीं देगी, तो तेरी शादी इसी गधे से कर दूंगा। इसी कारण उसने मालिक को कभी
दुलत्ती नहीं मारी। आखिर ससुर जो ठहरा।
एक दिन चंपा की बारात आई। वो पिछवाड़े
बंधा ही रह गया। लेकिन उसे ख़ुशी हुई, जब
पता चला कि मालिक के पास दहेज़ में नकदी कम पड़ गई। चंपा को मजबूरन वरमाला गधे
जैसे गुणों से भरपूर एक मानुष के गले डालनी पड़ी।
मगर वो गधा ही क्या, जो आशा छोड़ दे। उसे पूरी
आशा थी कि मैन ऑफ़ दि मैच वही होगा। चंपा अपने गधेनुमा पति से लड़-झगड़ कर वापस आयेगी
और फिर चांद सितारों सा आंगन होगा। मगर यह चंपा तो अपने पति से भी बड़ी गधी निकली। कभी
वापस न आई।
गधा अब बूढ़ा हो चला था। किसी काम का
नहीं रहा। मालिक ने उसे सड़क पर भटकने को छोड़ दिया। जो मिले खाओ और प्रभु के गुण गाओ।
यों यहां साल भर पार्टियां चलती हैं। इंसान खाता कम है और फेंकता ज्यादा है। चौपायों
की नियति में किसी बेकाबू ट्रक या मोटर के नीचे आकर सद्गति प्राप्त करना होता है।
और गधा सड़क पर आ गया। ज़िंदगी के इस अंतिम
पड़ाव पर उसने आशा न छोड़ी। सूंघता हुआ वो चंपा की गली में जा पहुंचा। उसे देखते हुए
दम तो निकलेगा। और वो सोच ही रहा था कि एक ट्रक ने उसे पीछे से ठोक दिया, ठीक चंपा के घर के सामने।
वो तत्काल परलोक पहुंच गया।
लेकिन पिक्चर अभी बाकी है।
चंपा एक अच्छी नागरिक है। कर्तव्य से
बंधी महिला है। उसने नगर निगम के मुखिया को फ़ोन मिलाया। बामुश्किल फ़ोन उठा। चंपा ने
सूचित किया कि उनके घर के सामने एक गधा परलोक सिधार गया है। निगम मुखिया ने चिर-परिचित
बेरुखी दिखाई। तो मैं क्या करूं? निगम ने गधों के क्रियाकर्म करने का
ठेका नहीं ले रखा है। चूंकि आपके घर के सामने गधा मरा है तो क्रिया कर्म भी आप ही को
करना होगा।
चंपा समझ गयी कि ये नाशुक्रा यों नहीं
मानेगा। उंगली टेढ़ी करके घुमानी होगी। पार्षद का चुनाव भी नज़दीक है। लिहाज़ा फ़ौरन पलटवार
किया। गधे का क्रियाकर्म तो मैं करूंगी ही। लेकिन यह भी ज़रूरी है कि गधे के नाते-रिश्तेदारों
को भी खबर कर दूं। सबसे नज़दीकी रिश्तेदार नगर निगम है। और मुखिया होने के नाते मुखाग्नि
आप ही देंगे। चैनल और प्रिंट मीडिया के लोग भी आ चुके हैं। बस अब आपका ही इंतज़ार है।
नतीजा ये हुआ कि दस मिनट के भीतर नगर
निगम की मरे पशु ढोने वाली लारी आई और उस दिवंगत गधे को ससम्मान उठा कर ले गयी। गधे
की आत्मा को शांति मिली। चंपा के इस कृत्य की भूरि भूरि प्रशंसा हुई। अगले साल निगम
चुनाव में उसकी पार्षदी पक्की समझो।
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Published in Prabhat Khabar dated 25 July 2016
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