Wednesday, July 27, 2016

अद्भुत थी रे की किस्सागोई


-वीर विनोद छाबड़ा
इतिहास अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा का हो या भारतीय सिनेमा का, अगर उसमें सत्यजीत रे का ज़िक्र नहीं है तो वो अधूरा है। १९७८ के बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में दुनिया भर के फ़िल्मकार जमा थे। बहस हुई कि दुनिया के तीन सर्वश्रेष्ठ निर्देशक कौन हैं। अंततः तीन शॉर्टलिस्ट हुए। सत्यजीत रे सर्वश्रेष्ठ उनमें से एक थे। 
वो पहले फ़िल्मकार थे जिन्होंने सिनेमा को कैमरे के माध्यम से देखा और पढ़ा। मेलोड्रामा नहीं भरा। प्रभाव पैदा करने के लिए संगीत को लाऊड नहीं किया। इंसान के अंतर्द्वंत को उसकी काया के बहुत भीतर तक घुस कर कैमरे की आंख से उजागर किया। दृश्य लगभग संवादहीन रहे। 'पाथेर पांचाली' (१९५५) उनकी पहली फिल्म थी जिसने हॉलीवुड में जाकर धूम मचाई। कुछ आलोचक भी रहे। कड़वाहट भरे शब्दों में एक ने कहा कि उसे रे का हाथ से दाल-भात खाता किसान सख्त नापसंद है। इसी श्रंखला के अंतर्गत अपराजित (१९५६) और अपुर संसार (१९५९) को भी अंतराष्ट्रीय स्तर पर भरपूर सराहा गया।
रे किसी एक जगह ठहरे नहीं। न विषय पर और न ही पात्रों पर। मध्य-वर्गीय समाज भी उनका विषय था और गरीबी-भूख-बेकारी भी। बच्चे और अबोध उनके प्रिय रहे और जासूसी के प्रति लगाव ने भी रे को खासा जिज्ञासु बनाया। वो बहुआयामी शख्सियत के मालिक थे। लेखक भी थे वो। बच्चों के लिए भी बहुत लिखा। इसीलिये उनकी किस्सागोई अद्भुत थी। प्रशंसक उनके लेखन की तुलना अंतोव चेखव और शेक्सपीयर से करते हैं। बहुत अच्छे ग्राफ़िक डिज़ाइनर भी रहे। कई विश्वविख्यात पुस्तकों के मुखपृष्ठ डिज़ाइन किये। इनमें मुख्य हैं 'डिसकवरी ऑफ़ इंडिया' और 'मैनईटर्स ऑफ़ कुमायूं'

निर्देशन के साथ-साथ सिनेमा के हर विभाग में उनका दखल रहा, चाहे संपादन हो या संगीत या छायांकन। अपनी ज्यादातर फिल्मों का स्क्रीनप्ले उन्होंने स्वयं लिखा। उन्होंने ३७ फ़िल्में निर्देशित की। सिर्फ मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित 'शतरंज के खिलाड़ी' और दूरदर्शन के लिए बनायी 'सद्गति' को छोड़ कर उनकी फिल्मों की भाषा बंगाली थी। दुर्भाग्य से इन दोनों हिंदी फिल्मों को उस स्तर की विश्व ख्याति नहीं मिली, जिसके लिए रे विख्यात हैं।
फिल्म को कला और कैमरा का विषय मानने वाले विश्वविख्यात अकीरा कुरासोवा, अल्फ्रेड हिचकॉक, चार्ल्स चैपलिन, डेविड लीन, फेडरिको फेलिनी, जॉन फोर्ड, इंगमार बर्गमन की पंक्ति में रे को भी रखा गया है। यह दुर्लभ सम्मान किसी अन्य भारतीय फ़िल्मकार को नहीं मिला है। 
जलसाघर, देवी, तीन कन्या, चारुलता, नायक, अशनि संकेत, कापुरुष ओ महापुरुष, घरे बाहरे, अभिजान, महानगर, गुपी गायें बाघा गायें, प्रतिद्वंदी, सीमाबद्ध, सोनार केला, जॉय बाबा फेलुनाथ आदि रे की अन्य श्रेष्ठ कृतियां थी। उन्हें और उनकी फिल्मों को बेशुमार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरूस्कार मिले। २३ अप्रैल १९९२ को मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्हें जग-प्रसिद्ध एकेडेमी पुरूस्कार से नवाज़ने उनकी प्रिय अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न आईं थी। रे उस समय कलकत्ता के एक अस्पताल में भर्ती थे। उनकी स्पीच एकेडेमी समारोह के दौरान लाईव टेलीकास्ट हुई। अपूर्व योगदान के लिए १९८४ में उन्हें प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के और १९९२ में भारत रतन दिया गया।

कुछ विवाद भी जुड़े रे के साथ। १९६७ में उन्होंने कोलंबिया पिक्चर्स के लिए 'दि एलियंस' की स्क्रिप्ट लिखी। पीटर सेलर्स और मर्लोन ब्रांडो को साइन भी किया गया। मगर अचानक कोलंबिया ने रूचि लेनी बंद कर दी। निराश होकर रे भारत लौट आये। लेकिन रे को हैरानी हुई जब उन्होंने इसी स्क्रिप्ट पर १९८२ में स्टीवन स्पीलबर्ग की 'ई.टी.' देखी। इसमें उन्हें कोई श्रेय नहीं दिया गया। उन्होंने शिकायत की तो कहा गया इसका कोई संबंध उनकी कथित स्क्रिप्ट से नहीं है। रे की दिली ख्वाईश  ईएम फोर्स्टर  के नावेल 'ए पैसेज टू इंडिया' पर फिल्म बनाने की भी रही, जिसे बाद में डेविड लीन ने फिल्माया। वो 'महाभारत' भी बनाना चाहते थे लेकिन स्वास्थ्य और धनाभाव आड़े आ गया। 
जापान के अकीरा कुरुसोवा से रे बेहद प्रभावित रहे। कुरुसोवा भी उनके ज़बरदस्त प्रशंसक रहे। उनका कहना था - रे की फिल्म के बिना फिल्मों की वही दशा है जैसे बिना सूरज और चांद की धरती।
रे के घोर आलोचकों की भी कमी नहीं रही है। देश की गरीबी और भूख को बेचने का आरोप लगा। उन्हें बुर्जुआ मध्यवर्गीय समाज का समर्थक कहा गया। कहा गया कि रे पात्रों का महज़ चित्रण करते रहे। उनके अंतर्द्वंद को किसी तार्किक समाधान की ओर नहीं ले गए। फ़िल्में मेलोड्रामा से वंचित रहीं। गति बहुत धीमी और उबाऊ रही।
लेकिन यह सच्चाई अटल है कि भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय छवि प्रदान करने में सबसे बड़ा योगदान सत्यजीत रे को है। देश उनका सदैव ऋणी रहेगा। रे का जन्म ०२ मई १९२१ था और मृत्यु के समय उनकी आयु सिर्फ ७१ साल की थी।
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published in Navodaya Times dated 27 July 2016
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