Tuesday, November 1, 2016

खाला जी का घर नहीं मिमिक्री करना

- वीर विनोद छाबड़ा 
फूहड़ कॉमेडी बहुत आसान है। स्टेज पर खड़े होकर किसी को गाली दे दो, किसी को मोटा या सींक-सलाई कह दो। किसी को काना कह दो। किसी को कह दो - अबे अंधा है दिखता नहीं। यह सब कॉमेडी है आजकल। 

लेकिन मिमिक्री करना बेहद कठिन है? दूसरे किरदार की काया में घुस जाओ। वो क्या खाता है, क्या पीता है, क्या सोचता है और सोचते हुए उसकी मुद्रा कैसी होती है? दांत खुरच रहा होता है या सर खुजला रहा होता है या पिछवाड़ा? गुस्से में अगाड़ी मारता या पिछाड़ी? ऐसे व्यक्ति का पत्नी-बच्चो का क्या स्टेटस होता है
बेहद बारीक़ अध्ययन करना होता है भाई। अपनी कल्पना से उसे और भी सजाओ और संवारो। स्टेज पर सैकड़ों के भीड़ में उसे दोहराना तो उससे भी कठिन काम। अगर पब्लिक न हंसी तो हफ़्तों की मेहनत बेकार। और फिर नकल ऐसी कि असली वाला भी चकरा जाए। उसे लगे की आईना रख दिया है किसी ने। बिलकुल एक्शन रीप्ले का आभास हो उसे। 
याद है एक बार महान विदूषक चार्ली चैपलिन अपनी ही मिमिक्री की प्रतियोगिता में भेष बदल कर गए थे। उन्हें पैसे की ज़रूरत थी। लेकिन वो चौथे नंबर पर आये थे। मिमिक्री आईने से भी आगे की चीज़ हो गयी। 
सदियों से चली आ रही है यह परंपरा। सिनेमा के फीमेल कलाकारों के मुकाबले मेल की ज्यादा मिमिक्री हुई है। मोतीलाल रहे हों या अशोक कुमार। दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद से लेकर सुनील शेट्टी तक, कोई नहीं छूटा। राजनीतिज्ञ भी अछूते नहीं हैं। लेकिन मुझे लगता है कि सबसे कठिन किरदार लालू प्रसाद यादव रहे हैं। मज़े की बात तो यह है कि मिमिक्री के मैदान में सबसे पॉपुलर भी वही रहे हैं। जिसने लालू जी मिमिक्री नहीं की समझो उसने कुछ नही किया। वो आर्टिस्ट ही नहीं। लालूजी को खुद भी अच्छा लगता है कि अगर उनकी मिमिक्री करने से किसी की रोज़ी रोटी चलती है। अपने पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी भी बरसों मिमिक्री आर्टिस्टों के पहली पसंद बने रहे। 
अमिताभ बच्चन की फिल्मों की टिकेट ब्लैक करके कई ब्लैकिये लखपति बने हैं तो उनकी मिमिक्री करके महल खड़े करने वाले भी मिलेंगे। एक महफ़िल में मुलायम सिंह यादव की मिमिक्री उनके सामने ही हो रही थी। चमचे नाराज़ हो गए। नेता जी ने कहा, करने दो। अगर हंसी आती है, तो इससे बड़ी दूसरी बात हो नहीं सकती। हां, ख़राब तब लगता है अगर मिमिक्री में भौंडापन आये। और अगर किसी को बेवज़ह आपत्ति हो तो उसे छोड़ देना चाहिए, यह मान कर कि उसमें सेंस ऑफ़ ह्यूमर नहीं है। 

यों तो सैकड़ों मिमिक्री आर्टिस्ट देखें हैं हमने। लेकिन राजू श्रीवास्तव ने हमें बहुत इम्प्रेस किया है। वो जुगाली करती भैंस की मनस्थिति की मिमिक्री कर लेते हैं और नाना प्रकार के व्यंजनों से लबालब प्लेट में दबे दही-बड़े की भावनाओं से भी परिचित करा देते हैं। चाट के ठेले के इर्द-गिर्द जमा चाट खा रही लड़कियों की भी मिमिक्री कर लेते हैं। 
अभी उस दिन एक चैनल पर राजू श्रीवास्तव कह रहे थे कि जब हम अपने पुराने आर्टिस्टों की मिमिक्री कर रहे होते हैं तो उनका मज़ाक नही उड़ा रहे होते हैं बल्कि अपनी वर्तमान पीढ़ी को अवगत करा रहे होते हैं कि हमारे ज़माने के आर्टिस्ट कैसे होते थे, उनकी आवाज़ और स्टाईल कैसी थी। इस तरह हम उन्हें नमन कर रहे होते हैं। हमें राजू की बात अच्छी लगी। 
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