- वीर विनोद छाबड़ा
दिलीप कुमार की धरोहर
राजेश खन्ना में ही दिखती थी। दोनों पक्के स्टाइलिश और परफेक्शनिस्ट। एक रीटेक से कभी
संतुष्ट नहीं हुए। रीटेक पर रीटेक। अब यह बात दूसरी थी कि रिव्यु किया गया तो पहला
ही सही पाया गया। ख़बर थी कि दोनों में बहुत पटरी खाती थी। यानी कि परफेक्ट अंडरस्टैंडिंग।
लेकिन हैरानी होती है कि अदाकारी की दुनिया में 'मील के पत्थर'
इन दो लीजेंड को एक-साथ लाने की कोशिश नहीं हुई। अगर ये आमने-सामने खड़े हुए होते
तो हमारा दावा है कि एक्टिंग की यूनिवर्सिटी में चल रही तमाम किताबों का आख़िरी चैप्टर
भी यूसुफ-काका की बेजोड़ परफॉरमेंस होती।
दिलीप कुमार-राजकपूर
फ़िल्मी दुनिया के कोहिनूर थे। रीएल लाईफ़ में बेहतरीन दोस्त। आस-पास के इलाके के रहने
वाले और एक कॉलेज में पढ़े हुए। पारिवारिक संबंध भी थे। दिलीप-सायरा के निकाहनामे पर
दस्तखत करने वालों में राजकपूर भी थे। लेकिन रील लाईफ़ में सिर्फ़ एक बार ही आमने-सामने
हुए, महबूब खान की 'अंदाज़'(१९४९) में। बहुत अच्छी
परफॉरमेंस। दोनों को इसी फिल्म ने स्टार बनाया। हालांकि इसके बाद कोशिशें बहुत हुईं
इनको साथ-साथ लाने की। खुद राजकपूर ने 'संगम' और फिर 'बॉबी' के लिए दिलीप से बात
की। लेकिन राजी नहीं कर पाए। शायद दिलीप कुमार को अंदेशा रहा कि मीडिया ख़ामख़्वाह की
एक बहस शुरू करा देगा कि छोटा कौन और बड़ा कौन। जैसा कि 'विधाता' में दिलीप कुमार और
संजीव कुमार के बीच बेहतर कौन को लेकर लंबे समय तक चर्चा होती रही। और दिलीप विरोधी
लाबी दिलीप कुमार को छोटा बताती रही। नतीजा यह हुआ कि दिलीप कुमार ने संजीव के साथ
दोबारा साथ आने से इंकार कर दिया। दिलीप कुमार और देवानंद के बीच भी बहुत गहरी दोस्ती
रही। मगर परदे पर जैमिनी की 'इंसानियत' के बाद इनको साथ लाने
की कोशिश नहीं हुई। देवानंद भी ताउम्र अकेले ही चलते रहे।
उस दौर के एक और लोकप्रिय
स्टार राजेंद्र कुमार भी होते थे। उन्होंने दोस्ती के नाम पर राजकपूर की 'संगम' की और फिर बरसों बाद
बुढ़ापे में 'दो जासूस'। अच्छा लगी दोनों की चुहल-बाज़ी। मगर फिल्म
चली नहीं। फिर किसी ने कोशिश नहीं की। इस तरह की फिल्मों में ज़रूरी है कि अदाकारों
के बीच केमेस्ट्री बहुत अच्छी होनी चाहिए। याद करिये 'विक्टोरिया नं २०३'
में अशोक कुमार-प्राण की जोड़ी।
राजेंद्र कुमार ने
अपने सुनहरे दौर में अकेले ही चलने का फैसला किया। समीक्षक कहते थे राजेंद्र पर दिलीप
कुमार की छाया है। राजेंद्र स्वीकार भी करते थे। स्क्रीन पर अगर इनका आमना-सामना होता
तो दूध और पानी अलग हो जाता। शम्मी कपूर से भी लोग डरते थे कि कहीं यह बंदा अपनी बिंदास
अदाओं से दूसरे स्टार को डस न ले।
और भी कई उदाहरण हैं
बड़े स्टार्स का आमना-सामना नहीं हो पाया। लेकिन जिसने भी कोशिश की उसे अच्छा सिला ही
मिला। मुशीर-रियाज और रमेश सिप्पी के अथक प्रयासों से दिलीप कुमार-अमिताभ बच्चन 'शक्ति' में पिता-पुत्र बन
कर टकराये। हमारा मानना है कि बेहतरीन परफॉरमेंस के दीवानों ने अगर शक्ति नहीं देखी
तो कुछ भी नहीं देखा। देखिये बार-बार। कलेजों को ठंड मिलेगी और इल्म में इज़ाफ़ा होगा।
दिलीप कुमार-राजकुमार की 'सौदागर' ने भी अदाकारी की की दृष्टि से एक बार ज़रूर
देखनी चाहिए।
सुपर स्टार राजेश खन्ना
के सामने कभी अमिताभ बच्चन 'आनंद' और 'नमक हराम' में छोटी भूमिका में
थे। 'ज़ंज़ीर' ने उन्हें दूसरा सुपर स्टार बना दिया। उन्होंने
संजीव कुमार, धर्मेंद्र, विनोद खन्ना और शशि कपूर के साथ तो कई फ़िल्में
की। अदाकारी के अच्छे नतीजे भी मिले। लेकिन सोचिये कितना मज़ा आता जब दो सुपर स्टार्स
का आमना-सामना होता।
सवाल यह है कि इसमें
गलती किसकी है? एक से बढ़ कर एक नायाब तस्वीरें देना फ़िल्मकार की ड्यूटी है।
पुराने दौर के बड़े स्टार्स अगर एक छत के नीचे नहीं आये तो हमारे विचार से फ़िल्मकार
अपनी ड्यटी अंजाम देने में नाक़ाम रहा है। वो स्टार्स की मन की संतुष्टी के अनुकूल कहानियां
और किरदारों को नहीं गढ़ पाया।
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Published in Navodaya Times dated 23 Nov 2016
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