- वीर विनोद छाबड़ा
मैं एक एक छोटा सा झक सफ़ेद पैमैरियन कुत्ता हूं। सब मुझे
डोंगी कहते हैं। बहुत लाड़ला हूं। मौजां ही मौजां हैं। जब तब किसी की भी गोद में बैठ
जाता हूं। सब खूब प्यार करते हैं। खूब बढ़िया खान-पान है। दूध,ब्रेड और ग्रेनूलस और हफ्ते में दो बार उबला हुआ कीमा।
बीमार पड़ता हूं तो मुझे कुत्तों वाला डॉक्टर घर देखने
आता है। मेरा अपना डॉग-हट है, जिसमें बढ़िया और मुलायम बिछौना है। लेकिन मुझे सोफे पर सोना अच्छा लगता है। पूरा
घर एयर कंडीशन है।
जितने सुख हैं, उतने दुःख भी हैं। गले में हर समय पट्टा पड़ा रहता है।
गुलामी का अहसास होता है। तिस पर चारदीवारी की क़ैद। मालिक को भय है कि बाहर बाज़ारू
कुत्ते नोच मारेंगे। पॉटी के लिए भी ज़ंज़ीर में रहना पड़ता है। साहब साथ में मोटा डंडा
लेकर चलते हैं। क्या मज़ाल कि कोई बाहरी कुत्ता पास फटखने पाये। किसी से दोस्ती करना
भी गुनाह है। इंसानों को मेरी भाषा ही समझ में नहीं आती है। अपने दिल की बात कहूं तो
किससे और कैसे?
हमारी ज़िंदगी बहुत लंबी होती है। अपनी मौत मरते हैं। मगर
बड़ी तकलीफ़ देह होती है। अभी साल भर पहले की बात है। हमारे घर में एक बड़ा अल्सेशियन
कुत्ता था। बहुत बूढ़ा हो गया था। बताते हैं चौदह साल की उम्र थी। दिन-रात दर्द से कराहता
था। डाक्टर ने बताया कि इसे पैरालिसिस हो गया है और अर्थराईटिस भी है। किडनियां भी
तकरीबन काम नहीं कर रहीं है। लीवर फंक्शन भी अफेक्टेड है। मल्टीपल डीसीज़ है। तब साहेब
के कहने पर डाक्टर ने उसे मौत का इंजेक्शन लगा दिया। बेचारे को दर्दभरी जिंदगी से छुटकारा
मिल गया। नौकर उसे बोरे में डालकर जाने कहां फ़ेंक आया था।
मेरी भी ऐसी ही मौत निश्चित है। मुझसे अच्छा तो दर दर
भटकने वाला बाज़ारू कुत्ता है। दो-ढाई साल से ज्यादा नहीं जी पाया। अक्सर किसी तेज गति
वाले ट्रक के नीचे आकर पिचक जाता है। लेकिन एक तरह से अच्छा ही तो है। ज़िंदगी छोटी
है तो क्या हुआ? है तो खुद की न। भले ही खाने को न मिले
या कम मिले। जब तक जीये, शान से। कोई दुत्कारे या फटकारे, फ़र्क नहीं पड़ता। जहां चाहो और जब चाहो कहीं भी घूम आओ।
आज़ादी है।
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