-वीर विनोद छाबड़ा
फिल्म
इतिहास का सफ़र अधूरा ही समझिये अगर उसमें उसमें फ्रंटबेंचर यानि चवन्नी क्लास
ज़िक्र न हो। आम चलन में चवन्नी क्लास का मतलब है,
कम दिमाग का होना। लेकिन फिल्मी संदर्भ में ये फिल्मबाज़ों
की वो जमात है जिसकी जो अगली सीट पर बैठना पसंद करती है। फिल्म को दिमाग से नहीं
दिल से देखती है। इस संदर्भ में हमें साठ, सत्तर और अस्सी के दशक की याद आती है।
जब
हमने होश संभाला तो सबसे आगे की क्लास की दर पांच आना यानी तीस पैसे थी। उससे पहले
कभी प्रवेश दर चवन्नी रही थी और इसी के आधार पर शायद इस क्लास के दर्शक वर्ग को
चवन्नी क्लास कहा गया। यों इनके दिमाग में कोई कमी नहीं थी। सस्ते मनोरंजन की
अभिलाषा में समाज के निर्धन वर्ग ने इसे आबाद किया। यहां कामगार,
दिहाड़ी मजदूर, होटलों-गैराजों में काम करने वाला अल्प आय वर्ग का इस पर आधिपत्य रहा। यहां
अभिजात्य, इलीट
और अमीर वर्ग और जेंटरी क्लास का उसे खौफ़ नहीं है। यहां वो खुद-मुख्तियार है। निडर
होकर बीड़ी-सिगरेट सुलगाता है। गेटकीपर द्वारा डपटने पर अपमानित महसूस होकर
छुरी-चाक़ू नहीं निकालता है। यह उसकी अपनी दुनिया है। अपनी सोच है,
प्राथमिकताएं हैं।
यह
क्लास भावुक ज्यादा रही है। करूणामयी दृश्यों पर रोती है,
फूहड़ हास्य पर भी दिल खोल कर हंसती है,
धांसू डायलाग पर ताली पीटती है,
भद्दे दृश्यों पर फिकरे कसने में संकोच नहीं करती और मुजरों
पर सिक्के भी खूब उछालती है। इसे किसी फिल्म को बार-बार देखने में कोई परहेज़ नहीं।
एक
बात और कि चवन्नी क्लास में भी एक क्लास और रही,
पहला दिन पहला शो देखने वालों की। पहला दिन,
पहला शो ख़त्म हुआ नहीं कि बाद बाक्स आफ़िस पंडितों हुजूम
इनकी ओर दौड़ पड़ा। भैया फिल्म कैसी लगी? गाने और संगीत अच्छे तो लगे? फिल्म की रिपीट वेल्यू का फैसला यही क्लास करती रही। इस पहले दिन,
पहले शो के दर्शक को अपनी कद्र बखूबी मालूम रही। और बड़ी
ईमानदारी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। बाज़ बाक्स आफिस एक्सपर्ट तो उनके चेहरे पर
तैरती ‘पैसा
वसूल’ मुस्कान
से ताड़ गये फिल्म सुपर-डुपर हिट होने जा रही है।
कई बार
एक्सपर्ट बाकायदा भेष बदल इनके बीच बैठ कर इनकी प्रतिक्रिया नोट करते देखे गये।
अगर इस क्लास को पहले शो में उबकाई आ गयी या पेशाब ज्यादा होने लगी तो समझिये कि
अगले हफ़्ते ही फिल्म थियेटरों से खदेड़ दी जाती थी। कभी-कभी फिल्मकार के विपक्षी
खेमे ने पहले दिन, पहला
शो देखकर निकले किसी चवन्नी क्लास से कहलवाया - भैया टिकट बेच कर मूंगफली खा लो।
मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्म भी बॉक्स ऑफिस पर पहले हफ़्ते इसी कारण से ठंडी गयी थी।
मगर
त्रासदी यह रही कि इस चवन्नी क्लास की किसी ने कद्र न की। अगली क्लास के एडवांस का
सिस्टम नहीं था। शो से आधा घंटा पहले टिकट बंटा। बेहद सौतेला सलूक किया गया।
थिएटरपिछले बदबूदार हिस्से में इनकी बुकिंग विंडो रही। वो भी इतनी संकरी कि
बामुश्किल एक हाथ घुस सके। पहले दिन की भीड़ तो ज़बरदस्ती दूसरा और तीसरा हाथ तक
घुसेड़ देती। बुरी तरह हाथ भी छिल जाते। कुछ थिएटर में लोहे की सलाखों से बने तंग
जंगले से हम गुज़रे। दबंगों को तो जंगले के ऊपर से भीड़ में कूदते देखा हमने। इस
हैवानी मंज़र ने हमें कई बार डराया। निर्बल अक्सर चोटिल और लहुलूहान हुए। भीड़ को
कंट्रोल करने के लिये न माकूल इंतज़ाम रहा और न ही ज़ख्मी-लहुलुहान हुए टिकटार्थियों
की मरहम-पट्टी की गयी।
आर्थिक सुधारीकरण के दौर
का असर इस क्लास पर भी पड़ा। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर एक-एक करके बंद होने लगे।
महंगी टिकेट दर वाले मल्टीप्लेक्स आ गए। मल्टीप्लेक्स में भी पहला दिन और पहला शो
का एक ख़ास दर्शक वर्ग है लेकिन इसमें वो
दर्शक नहीं है जो फिल्म को रिपीट पर रिपीट करता चला जाता था। बहरहाल, आज इस बदले हालात में ये चवन्नी क्लास जमात बहुत छोटी
होकर रह गयी है और बचे-खुचे सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में आखिरी सांस ले रही है।---
Published in Navodaya Times dated 05 Nov 2016
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चवन्नी क्लास सही लिखा है आपने। पुराने दिन याद आ गये।
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