Friday, November 25, 2016

पड़ोसन का बहनापा।

- वीर विनोद छाबड़ा
हमारे बचपन की बात है। हमारी एक पड़ोसन हुआ करती थीं, सावित्री। मां की उनसे बहुत पटरी खाती थी। समझो बहनों जैसा प्यार था उनमें। इसीलिए हम उन्हें मासी कहते थे। एक दिन मां का सावित्री मासी से किसी बात पर अनबन हो गयी। बात यहीं तक नहीं रुकी। तू तू-मैं मैं से हाथापाई की नौबत आ गयी। ख़ासा गर्मा-गर्मी का माहौल बन गया। दोनों ने एक-दूसरे की सूरत तक न देखने की क़सम खायी। तुझे क़सम है कि मेरे मरने पर भी नहीं आना। आजू-बाजू वालों का तो टैक्स फ्री एंटरटेनमेंट हो गया।

लेकिन यह कोई नयी बात नहीं थी। महीने-दो महीने पीछे ऐसा एक आध २०-ट्वेंटी हो ही जाया करता था। और फिर दूसरे-तीसरे दिन किसी न किसी बहाने फिर वही बहनापा स्थापित हो जाता था।
बहरहाल, उस दिन शाम हुई। मां का गुस्सा अभी तक उतरा नहीं था। बड़बड़ किये ही जा रही थी। दीवार उस पार अपने आंगन में सावित्री मासी भी कम नहीं बड़बड़ा रही थी। ये बड़बड़ाना दोनों मुंहबोली बहनों के बीच स्नेह का बैरोमीटर था।
तभी सावित्री मासी के घर के सामने एक तांगा रुका। मेहमान आये हैं। मां ने थोड़ा सा दरवाज़ा खोल कर टोह ली। अरे, यह तो सावित्री के मायके वाले हैं।
मां ने तुरंत थैला उठाया। उसमें कुछ क्रॉकरी, कुछ मट्ठियां, कुछ बेकरी के बने बिस्कुट और एक डिबिया में थोड़ा सा अचार रखा। तभी मां को कुछ और याद आया। अख़बार फाड़ा। एक टुकड़े में थोड़े से सौंफ़ लपेटे।
इस बीच मां का बड़बड़ाना बराबर जारी रहा ...मैं सावित्री की रग-रग से वाक़िफ़ हूं। घर में कुछ है नहीं उसके। लेकिन मुझसे नहीं कहेगी। कद छोटा हो जायेगा न। पीतल के गिलासों में चाय पिलायेगी और पापड़ भून कर सामने रख देगी। मेहमानों के सामने बेइज़्ज़ती कराएगी अपनी भी और पड़ोसियों की भी। जा कर चुपचाप देना। संभाल कर ले जाना, कुछ टूटने न पाये। यह क्रॉकरी का सेट सरला बहनजी का है। तेरे ताऊजी आये उस दिन तब मांग कर लायी थी। इतने दिन से रखा है।  न मुझे फ़ुरसत मिली वापस करने की और उन्हें याद आई....और हां मासी से याद से यह भी कह देना, अपने मायके वालों को हमारे घर मिलाने ज़रूर लाये। पिछली बार भूल गयी थी। मैं बेसन घोलने जा रही हूं। उसके मायके वालों को गोभी के पकौड़े बहुत पसंद हैं।

ऐसा होता था पड़ोसियों में प्यार उस ज़माने में। दुःख-सुख सब सांझे होते थे। वक़्त पड़ने पर तंदूर के साथ-साथ बरतन भी सांझे हो जाते थे। आपस में कितना ही मनमुटाव क्यों न हो, लेकिन बाहर से आये मेहमानों के सामने एक-दूसरे के लिए मर-मिटने के लिए तैयार 'हम एक हैं' की भावना।
ऐसी भावना अब ख़त्म हो चुकी, यह तो हम नहीं कहते। लेकिन धीरे-धीरे विलुप्त होने की कगार पर है।

जै-जै आर्थिक भूमंडलीकरण और विकास। 

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