-वीर विनोद छाबड़ा
वो एक भला युवक था। देखने में भी भोला-भाला। इस शहर में पढ़ने आया था। डॉक्टर बनने
के सपना लेकर। दीन-दुखियों की सेवा करना, उसका मकसद था।
कोई दो साल हुए थे आये। चाहे कोई भी हो, छोटा या बड़ा या बुज़ुर्ग, किसी भी संप्रदाय का।
हर एक से हेलो करने वाला।
कुछ जलने वाले भी थे।
एक दिन सांप्रदायिक वारदात हुई। एक जलने वाले दबंग शख्स ने उसे फंसा दिया कि यह
भी दंगाई है।
पुलिस आई और उसे पकड़ कर ले गयी। वो खुद को बेगुनाह बताता रहा। आस-पड़ोस के लोग तमाशा
देखते रहे। दबंग के डर से किसी भी व्यक्ति ने उसकी मदद नहीं की। हालांकि सब जानते थे
कि उस युवक का इस वारदात में कोई हाथ नहीं।
एक निडर ने सबूतों सहित सोशल मीडिया पर बेबाक पोस्ट लगाई उस युवक की बेगुनाही की
और दबंग की दबंगई की। ख़बर फैली। शहर के कुछ नौजवान विरोध के बैनर लेकर उठ खड़े हुए उसकी
हमदर्दी में। मिडिया भी सक्रिय हुआ।
नतीजा यह हुआ कि सबूत ने मिलने की वज़ह से वो युवक छोड़ दिया गया।
लेकिन वो युवक और उसके हमदर्द चुप नहीं बैठे। लगा दिया मुक़दमा कचहरी में कि उस
दबंग के विरुद्ध जिसने उस पर गलत आरोप लगाया था।
युवक ने जज के सामने बयान दिया - इस दबंग के बयान की वजह से समाज में उसकी छवि
ख़राब हुई है।
दबंग बुरी तरह घिर गया। उसे लगा अगर वो हार गया तो उसकी छवि ख़राब होगी। उसे अगला
चुनाव भी लड़ना है। हर तबके के वोट चाहिए। जज के सामने उसने आत्मसमर्पण कर दिया - मैंने
शक के आधार पर कह दिया था। मैं माफ़ी मांगता हूं।
जज ने उस दबंग से कहा -आपने अभी-अभी जो बयान दिया है उसे एक कागज़ पर लिख दें।
दबंग ने ऐसा ही किया।
जज ने कहा अब इसके टुकड़ें टुकड़े कर दें। हैरान-परेशान दबंग उस कागज़ के सैकड़ों टुकड़े
कर दिए।
जज ने कहा- अब इन टुकड़ों को कचेहरी के परिसर में बिखेर दें।
दबंग सहित तमाम हाज़रीन की समझ में नहीं आ रहा था कि जज साहब ऐसा क्यों करा रहे
हैं? इससे क्या समाधान निकलने जा रहा है।
बहरहाल दबंग ने कागज़ के उन छोटे-छोटे टुकड़ों को जज साहब के कहने के मुताबिक चारों
और बिखेर दिया और जज साहब के सामने हाज़िर हो गया।
जज साहब ने कहा - अब उन कागज़ के टुकड़ों को बटोर कर वापस लाओ।
दबंग को तो काटो खून नहीं। माथे पर आया पसीना पोंछते हुए बोला - हुज़ूर यह मुमकिन
नहीं है। बाहर तेज हवा चल रही है। कागज़ के वो टुकड़े जाने कहां -कहां उड़ गए होंगे।
जज ने कहा - बिलकुल दुरुस्त फ़रमाया। ठीक इसी तरह आपका एक अकारण शक़ इस युवक की इज़्ज़त
को तार-तार कर गया है। समाज की नज़रों में उसे गिरा गया है। उस इज़्ज़त को शायद दोबारा
पाना इसके लिए मुमकिन नही होगा। अगर किसी के बारे में अच्छा नही कह सकते तो कम से कम
चुप रहें। ज़बान पर कंट्रोल रखें और अपनी सोच के दास नहीं बनें।
नोट - उक्त पोस्ट एक प्रेरक कथा पर आधारित है।
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