Friday, November 4, 2016

चला गया लंबे लेख का ज़माना।

-वीर विनोद छाबड़ा
याद आता है अस्सी और नब्बे दशक। लेखन का काम पूरे शबाब पर था।
स्थानीय अख़बारों में लेख देने अख़बार के ऑफिस हम खुद जाते थे। इससे आत्मीय रिश्ते भी कायम होते थे।

वहां कार्यरत सभी लोग मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराते।
हम भी मुस्कराहट का जवाब मुस्कुरा कर देते हुए आगे बढ़ जाते।
एक दिन हमें लगा एक बंदे की मुस्कुराहट में थोड़ा रहस्य, थोड़ी ईर्ष्या और व्यंग्य का सम्मिश्रण है। हमने ओवरलुक कर दिया। अगली बार भी ऐसा ही हुआ। हमने फिर अनदेखी की। लेकिन जब तीसरी बार भी ऐसा हुआ तो हमसे रहा न गया। पूछ लिया - भैया, कोई गलती हुई है?
वो हंस दिया और बोला - नहीं, नहीं। ऐसे कोई बात नहीं। दरअसल जब आप आते हैं तो हम राहत की सांस लेते हैं। कलम बंद कर देते हैं। अब आपका लेख आ गया है। वो इतनी जगह ले लेगा कि हमारे लिए जगह ही नहीं बचेगी। बची न हमारी मेहनत।
मैं इशारा समझ गया। कोशिश करने लगा छोटा लिखूं। ताकि दूसरों को जगह मिले। लेकिन खुद पर ज्यादा नियंत्रण कर नहीं पाया। नतीजा, सजा मिली। भाई लोगों ने छापना ही बंद कर दिया।

परंतु इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी। दरअसल, हम स्वयं में इतने मुग्ध रहे कि पता ही नहीं चला कि वो युग कबका बीत चुका था, जब पूरे सफे पर लेटने वाले लेख लिखे और लिखाये जाते थे।
मगर वो कहते हैं न कि पुरानी आदत मुश्किल से मरती है। बहुत कोशिश करता हूं कि कम शब्दों में बात कहूं। लेकिन अक्सर क़लम बेकाबू हो जाती है। एक बार तो इतना बड़ा लेख हो गया कि ब्लॉग भी नाराज़ हो गया। उसने लेने से मना कर दिया। तब उसे तीन किश्तों में डालना पढ़ा। अब थोड़ी अक़्ल आ गयी है। पहले की तुलना में छोटा लिख रहा हूं। 

ज़िंदगी भी कम रह गयी है और बहुत लिखना बाकी है। अब टुकड़ों टुकड़ों में बीती ज़िंदगी को बयां कर रहा हूँ। सच कहूं इसमें ज्यादा मज़ा आ रहा है।
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04-11-2016 mob 7505663626
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