Wednesday, November 9, 2016

टूटे दिल से कहा फिल्मों का अलविदा

- वीर विनोद छाबड़ा
आजकल माहौल देशभक्ति और देशभक्तों का है। ऐसे समय में मनोज कुमार की याद आनी लाज़मी है। फिल्मों में देशभक्ति को दर्शाने वालों में वो महारथी थे । हालांकि उनके विरोधी कहा करते थे कि वो देशभक्ति को भुनाया करते थे। इस साल उन्हें दादा साहब फाल्के अवार्ड से भी भारत सरकार ने नवाज़ा है। हालांकि उन्हें यह अवार्ड बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। लेकिन देर आये, दुरुस्त आये।
मनोज ने सबसे पहले शहीद (१९६५) में भगत सिंह का किरदार अदा करके देशभक्ति को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान और क्रांति  में वो देश के प्रति अपने कर्तव्य को निभाते रहे। इनमें उन्होंने भारत नाम के किरदार को बखूबी जिया। लेकिन मनोज ने इन फिल्मों में महंगाई, भ्रष्टाचार, जमाखोरी, कालाबाज़ारी, जिस्मखोरी जैसे मुद्दों को भी खूब लथाड़ा। इन्हें देशद्रोह की श्रेणी में रखा। पहचान, यादगार, बेईमान, संन्यासी, दस नंबरी आदि अनेक फिल्मों में उनका भारत किरदार इन्हीं एंटी-नेशनल मुद्दों से मुठभेड़ करते हुए दिखा।
उपकार और रोटी कपडा मकान के लिए फिल्मफेयर का श्रेष्ठ निर्देशक का अवार्ड मिला। निर्देशन में उनके मेंटर राजकपूर और राजखोसला रहे। राजखोसला ने उन्हें वो कौन थी और अनीता में एक कंफ्यूस्ड किरदार के लिए चुना क्योंकि उनका मानना था कि वो इसी किरदार के लिए बने हैं। फ़िल्मफ़ेयर ने बेईमान में श्रेष्ठ नायक का अवार्ड भी दिया। १९९९ में उन्हें फ़िल्मफ़ेयर ने एक बार फिर लाईफ़ टाईम अचीवमेंट के लिए मंच पर बुलाया। १९९२ में पद्मश्री मिली। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर मनोज ने जय जवान जय किसान के नारे को फिल्म 'उपकार' उतारा। वो सदैव भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर रहे। १९९८ में मध्य प्रदेश सरकार ने तो उनका नाम भारत रत्न के लिये प्रस्तावित किया।

मनोज का जन्म २४ जुलाई १९३७ को पाकिस्तान के ख़ैबर इलाके के अब्बोटाबाद में हुआ। पार्टीशन के बाद उनका परिवार दिल्ली में बस गया।
दिलीप कुमार के ज़बरदस्त फैन थे मनोज। १९४९ में रिलीज़ 'शबनम' में दिलीप के किरदार का नाम मनोज था। इससे वो इतना ज्यादा प्रभावित हुए कि अपना नाम हरिकृष्ण गिरी गोस्वामी से बदल कर मनोज कुमार रख लिया। बाद में मनोज ने दिलीप कुमार के साथ 'आदमी' में अहम भूमिका निभायी। मनोज ने दिलीप को १८५७ के ग़दर की पृष्ठभूमि पर 'क्रांति' में डायरेक्ट करके दिली इच्छा पूर्ण की। इस सफल फिल्म से दिलीप कुमार ने अपनी दूसरी फ़िल्मी पारी का आग़ाज़ भी किया था। 
मनोज को १९५७ में पहली रिलीज़ 'फैशन' में ज्यादा नोटिस नहीं किया गया। बाद में १९६२ में विजय भट्ट की 'हरियाली और रास्ता' ने उन्हें आसमान पर पहुंचाया।  हालांकि मनोज की गिनती एक नंबर एक्टर में कभी नहीं रही। लेकिन उनकी फ़िल्में खूब हिट रहीं - गृहस्थी, हिमायल की गोद में, गुमनाम, बेदाग, पत्थर के सनम, सावन की घटा, नीलकमल, मेरा नाम जोकर, बलिदान, दो बदन आदि। हवाई यात्रा से वो बहुत डरते थे। पूरब और पश्चिम के लिए उन्हें लंदन जाना था। उन्हें आखों पर पट्टी बांध कर ऐरोप्लेन में बैठाया गया।

मनोज 'कलयुग और रामायण' को लेकर विवाद में भी रहे। पहले इस फिल्म का नाम 'कलयुग की रामायण' था। लेकिन सेंसर ने ऐतराज किया। इसकी विषय वस्तु पर भी तकलीफ थी। जनमानस की आस्था को चोट पहुंचने का डर था। पहले मनोज ज़िद्द पर अड़े रहे। लेकिन अंततः झुकना पड़ा। तब तक वक़्त बहुत आगे निकल चुका था। दर्शक की प्राथमिकताएं भी बदल चुकी थीं। नतीजा- फ़िल्म फ्लॉप हो गयी। पहली बार पाकिस्तानी आर्टिस्ट ज़ेबा और मो.अली को 'क्लर्क' में काम कराने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। इससे भी काफी बखेड़ा खड़ा हुआ। यह चर्चित फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरी। मैदाने जंग (१९९५) उनकी आखिरी फिल्म अभिनीत फिल्म थी। १९९९ में उन्होंने अपने पुत्र कुणाल को 'जै हिन्द' में डायरेक्ट किया। यह भी टिकट खिड़की पर फेल हुई। टूटे दिल मनोज ने फिल्मों से ही तौबा कर ली। 
वक़्त गुज़रता गया। लोग मनोज को भूल गए। लेकिन २००७ में मनोज फिर चर्चा में आये। शाहरुख़ खान ने 'ओम शांति ओम' में उनकी नकल की। यह बात मनोज को बहुत नागवार गुज़री थी। खासा हंगामा खड़ा हुआ। लेकिन आउट ऑफ़ कोर्ट सेटलमेंट हो गया। शाहरुख को माफ़ी मांग ली।
पुत्र मोह से पीड़ित मनोज की विरासत को उनके बेटे कुणाल और विशाल आगे नहीं बढ़ा पाये। भाई राजीव गोस्वामी भी 'पेंटर बाबू' में बिग फ्लॉप रहे। शराब से तौबा करने वाले मनोज फिल्म इंडस्ट्री में पंडितजी के नाम से भी मशहूर हैं। वो एक अच्छे होमियोपैथ भी हैं। 
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Published in Navodaya Times dated 09 Nov 2016
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