-वीर विनोद छाबड़ा।
सन १९९३ का सितंबर का महीना था।
अपनी चचेरी बहन की शादी में जाना था। छुट्टी के लिए आवेदन दिया। ऑफ़िसर बोले - खाली
हाथ क्यों जा रहे हो?
यह कहते हुए टूअर दे दिया। अंधे को क्या चाहिए दो आंखें।
पार्लियामेंट स्ट्रीट पर था ऑफिस। शायद श्रम-शक्ति भवन में ऊर्जा मंत्रालय। ट्रेन
लेट पहुंची थी। सोचा पहले ऑफिस का काम निपटा लिया जाए। उन दिनों चार-पांच किलोमीटर
एक स्ट्रेच में चलने पर भी थकान नहीं होती थी। फायदा भी होता है। रास्ता भी याद होने
के साथ-साथ आस-पास के माहौल और इमारतों से भी परिचय हो जाता है।
हाथ में सिर्फ एक ब्रीफ़ केस। दस या साढ़े-दस का वक़्त रहा होगा। मैं श्रम-शक्ति भवन
के सामने था। काम निपटाने में खासा वक़्त लग गया।
टाइम देखा। दोपहर का तीन बज चुका था।
विवाह स्थल तालकटोरा स्वीमिंग पूल काम्प्लेक्स का बैंक्वेट हाल। टाइम सात का दिया
हुआ था। चाचा का घर था पीरागढ़ी में मियांवाली नगर। ये जगह वहां से कम से कम १६-१७-किलोमीटर
से दूर रही होगी। डर ये भी था कि कहीं ऐसा न हो कि मैं वहां पहुंच और चाचा लोग यहां
तालकटोरा।
सीधा विवाह स्थल पर पहुंचना ज्यादा बुद्धिमानी लगी। मैंने किसी से दरयाफ़्त की।
पता चला तालकटोरा गार्डन नज़दीक है। कोई दस मिनट का रास्ता। वहीं स्वीमिंग पूल और बैंक्वेट
हाल भी है।
मैंने वहीं पास में ही फल लिए। एक पेड़ की छांव तले बैठ कर खाए। और फिर चल पड़ा मंज़िल
की ओर। दस-पंद्रह मिनट बताये रस्ते पर चलने के बाद भी तालकटोरा नहीं दिखा।
फिर किसी राहगीर से पूछा। उसने कहा - बस थोड़ी दूर और। तकरीबन पोंच ही गए हो जी
। सज्जे जाके, खब्बे लुढ़ जाना। फिर सिधे । दस मिनट खर्च होणे ने।
मुझे याद नहीं कितने लेफ्ट और राइट लिए। और कितना स्ट्रेट चला। डेढ़ घंटा तक मुसलसल
चलता रहा। बीच-बीच में ऑटो वाले दिखे। रुकने का इशारा किया। लेकिन एक भी नहीं रुका।
सिर्फ दिल्ली ही नहीं हर शहर के ऑटो वाले मनमर्जी के मालिक होते हैं।
सितंबर की दोपहर। उमस वाला चिपचिपा मौसम। थक कर चूर-चूर और पसीना-पसीना। पानी भी
नहीं मिला रास्ते में। खुद को गाली देता रहा और दिल्ली वालों को भी। सही और सीधा पता
बताया होता तो वहीं पार्लियामेंट स्ट्रीट से ऑटो कर लेता।
तभी एक पुलिस दिखा। उससे रास्ता पूछा। उसने मुझे सर से पांव तक देखा। शायद वो समझ
गया किसी दिल्ली वाले से रास्ता पूछने का भुक्त भोगी है। वो व्यंग्य से मुस्कुराया
- सामने ही तो खड़े हो तालकटोरा गार्डन के।
घडी में पांच बज रहे थे। मैंने कान पकड़े। उस दिन के बाद मैं जब कभी दिल्ली गया
तो ज़रूरत पड़ने पर दिल्लीवाले से पता नहीं पूछा। पुलिस वाले से मदद ले ली। फ़ायदे में
रहा।
अब ये अलग कहानी है कि दिल्ली वालों के दिल तो बड़े हैं। जफ्फियां पा-पा कर मिलते
हैं। मुंह-मत्था भी चूमेंगे।
मगर टाइम नहीं किसी के पास। बोलेंगे - आप बैठो, नाश्ता शास्ता करो।
मैं बस हुढें आया। ये 'हुढें' जल्दी खतम नहीं होती। कम से पांच-छह घंटे
से पहले बंदा दिखेगा नहीं। इसके भी सौ बहाने। ट्रैफिक जाम जी, फलां बंदा ने बड़ा इंतिज़ार
कराया जी वगैरह वगैरह।
हम भी ट्रेन चलने के वक़्त से तीन चार घंटा पहले बोलते हैं - चंगा जी। चलते है।
गाड़ी का टाइम हो चला है। बीच में दो घंटे लाल
बत्ती और ट्रैफिक जाम दोनों मिलने हैं।
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दिल्ली दिलवालों की ---पता नही किसने कहा
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