Saturday, November 26, 2016

उस किरदार के लिए तैयार नहीं हुई थी निम्मी

-वीर विनोद छाबड़ा
शिक्षक मोहन की मां सख्त बीमार है। डॉक्टर ने कहा इनको दवाइयों की नहीं बहु की ज़रूरत है। मोहन शादी के पक्ष में कतई नहीं है। एक हमदर्द पड़ोसी ने सुझाया कि वो एक एक्ट्रेस रजनी को जानता है। उसे विश्वास है कि वो पैसे लेकर नकली पत्नी बनने को तैयार हो जायेगी। जब मां ठीक हो जायेगी तो उसे वापस भेज देंगे। और रजनी तैयार हो गई। मां ठीक होने लगी। मां ने रजनी को कीमती जेवरात भी दे दिये। उसका मन बेईमान हो गया। लेकिन सहसा उसके अंदर की औरत जाग उठी। वो मोहन से प्यार करने लगी। दुल्हन बनने के सपने देखने लगी। मोहन भी उस पर जान छिड़कने लगा। लेकिन एक दिन मोहन को पता चला कि रजनी वास्तव में एक मशहूर कोठे वाली चंपाबाई है। मां को आघात लगता है। सपने टूट गए। एक ड्रामा होता है। एक दलाल चंपाबाई को समाज का आईना दिखाता है। सपने देखना तुम्हारे नसीब में नहीं है, चंपाबाई। मोहन की मां की आंख खुल जाती है। तू बहु बन कर आयी थी, अब वेश्या बनने नहीं जायगी। सुखांत।
प्रगतिशील विचारधारा के पंडित मुखराम शर्मा ने यह फ़िल्मी कहानी लिखी। उस ज़माने में कोठे वाली बाई का घर बसाना अफ़सानों में मुमकिन था, लेकिन स्क्रीन पर नहीं। स्क्रीन पर ऐसे किरदार को आख़िर में मरना पड़ता है या यूं कहें मारा जाता है। लेकिन पंडित जी का विचार था कि औरत ख़ुशी से वेश्या नहीं बनती है। वो वेश्या को इज़्ज़त की ज़िंदगी देने के हक़ में थे। लेकिन यक्ष प्रश्न उनके ज़हन में उठा कि इस साहसिक कृति  पर फ़िल्म कौन बना सकता है? उन्हें बिमल रॉय का नाम सुझाई दिया जो 'परिणीता' और 'देवदास' जैसी बेहतरीन फ़िल्में बना चुके थे।

पंडित जी बड़े उत्साह और विश्वास के साथ बिमल दा के घर पहुंचे। बिमल दा ने बड़े ध्यान से कहानी सुनी। उन्हें बहुत ही पसंद आयी। मगर उन्हें कहानी का सुखांत होना पसंद नहीं आया। हमारा समाज वेश्या को पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। वेश्या को मार दो। खूब सहानुभूति मिलेगी।
पंडित जी को ज़बरदस्त धक्का लगा। इतने प्रोग्रेसिव बिमल दा समाज से डर गए!
पंडित जी अपने विचारों को बदलने वालों में कभी नहीं रहे। वो ख़फ़ा हो गए। उनका अगला स्टॉप था बीआर चोपड़ा। वो प्रगतिशील थे और बोल्ड भी। उन्होंने कहानी सुनी और जब उन्हें पता चला कि बिमल रॉय इसे नापसंद कर चुके हैं तो लगा किसी ने चैलेंज किया है। फ़िल्म ज्यूं के त्यूं एंड के साथ बनेगी। फिल्म का नाम रखा - साधना। 
समस्या हुई कास्टिंग को लेकर। निम्मी को अप्रोच किया। लेकिन वो तैयार नहीं हुई। उन्हें खतरा था कि वेश्या का किरदार करने से उनकी इमेज ख़राब होगी और पहले से डांवांडोल खतरे में पड़ेगा। तब बीआर ने वैजयंतीमाला को अप्रोच किया, जो उनकी पिछली फिल्म 'नया दौर' की नायिका थी।

बहुत आसान नहीं था ऐसे किरदार को निभाना जिसे समाज निगेटिव दृष्टि से देखता हो और जिसके कंधे पर फिल्म का पूरा बोझ हो। ज़बरदस्त कलेजा और तजुर्बा चाहिए। तब तक वैजयंती के नाम कुल दस फ़िल्में थीं और उम्र थी महज २२ साल। कुछ झिझक के वैजयंती ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। और पूरी शिद्दत और मैच्योरिटी के साथ अदा किया। इसके लिए उन्हें फिल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड मिला। और पंडित मुखराम शर्मा को बेहतरीन स्टोरी का अवार्ड मिला। आगे चल कर पंडित जी ने धूल का फूल, तलाक़, घराना, दादी मां, दो कलियां, राजा और रंक, जीने की राह, हमजोली, लगन और समाधी जैसी सुपर हिट फ़िल्में लिखीं।

१९५८ में रिलीज़ 'साधना' ज़बरदस्त हिट हुई। साहिर लिखे यों तो सभी गाने अच्छे थे। लेकिन सभ्य समाज के सफेदपोशों को शर्मशार करने वाला यह यह गाना बहुत हिट हुआ था - औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया...आज की तरह औरत कल भी भोग-विलास की वस्तु थी। 
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Published in Navodaya Times dated 26 Nov 2016
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1 comment:

  1. छाबड़ा साहब आपने बहुत ही लाजवाब लिखा है। शुक्रिया आपका। यूं ही लिखते रहिए।

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