Sunday, November 20, 2016

कौआ चला मोर की चाल!

-वीर विनोद छाबड़ा
बचपन में एक कथा सुनी और फिर पढ़ी थी - कौआ चला हंस की चाल, भूला अपनी चाल।

इतनी बड़ी नसीहत उस कौए की कुछ पीढ़ियों तक को ही याद रही।
आठवीं पीढ़ी के एक कौए ने अपनी बदसूरती को कोसा। एक बार फिर कोशिश की प्रकृति प्रदत्त  के नियम को बदलने की।
लेकिन इस बार खूबसूरत दिखने के लिए वो हंस की नहीं मोर की चाल चला।
उसने जंगल में बिखरे मोर पंख बटोरे। उन्हें अपनी पूंछ के आस-पास बांध लिया। तालाब में अपनी छवि देखी। बड़ा गदगद हुआ। निरा मोर दिख रहा था।
वाह! अब मेरी बिरादरी कौओं वाली नहीं रही। मुझे मोरों के बीच जाना चाहिए। किसी खूबसूरत मोरनी से ब्याह रचा लूंगा। रिमझिम सितारों सा आंगन होगा। मेरी आने वालीं पीढ़ियां भी खूबसूरत मोर होंगी।
मन ही मन खुश होकर यह सोचते हुए वो कौआ मोरों की झुंड में पहुंचा। लेकिन उसकी आशाओं के विपरीत मोर उसे तुरंत ही पहचान गए। उन्होंने उसका उपहास उड़ाया। फिर चोंचों और पंजों से मार-मार कर उसे लहू-लुहान कर भगा दिया।
आहत कौआ अपने झुंड में वापस पहुंचा। उसकी यह हालत देख सब कौए अचंभित व दुःखी हुए। उसकी इस अधमरी दशा का कारण पूछा। तब उसने असली कारण बताया कि मोर बनने की चाहत की इतनी बड़ी सजा दुष्ट मोरों ने दी।

उसकी व्यथा कथा सुन कर कौओं का सरदार बोला - यह कौआ अपनी चाल एक बार फिर भूला। ईश्वरीय देन बदसूरती से संतुष्ट नहीं हो सका। इसने अपने निर्धारित कर्मों का अपमान किया है। यह और भी ज्यादा पिटने लायक है। पीटो इस धोखेबाज़ को।
यह हुक्म पाते ही सबने मिल कर उसकी खूब पिटाई की। और उसे अपनी कौआ बिरादरी से बेदखल कर दिया।

बड़ी बुआ यह कथा सुनाते हुए सीख दिया करती थी - ईश्वर ने जो रूप दिया है, उससे संतुष्ट रहो। सत्कर्मों से स्वयं को निखारो। लेकिन तब तक हम सो चुके होते थे। 
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