Thursday, June 1, 2017

बांधने का हक़ इंसान को नहीं

-वीर विनोद छाबड़ा
एक बादशाह अपनी ईमानदारी और रहम दिल होने के लिए बहुत मशहूर हुआ करते थे।

उनके दरबार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा। उसने रोज़ाना सैकड़ों दीन-दुखियों की सेवा की और हुनरमंदों को नौकरी और ईनाम से नवाज़ा। अहंकार तो उसे छू तक नहीं पाया। यही नहीं उसने कभी दूसरों से सीखने में गुरेज़ भी नहीं किया, चाहे वो छोटा रहा हो या बड़ा।
यह वो दौर था जब इंसान दूसरे इंसान को खरीदता था। उससे मनमाना काम लेता था। न करने पर उसकी चमड़ी तक उधेड़ लेने में भी उसे संकोच नहीं होता था। खाने के लिए बस ज़िंदा रहने भर का ही दिया जाता था।
एक दिन बादशाह को भी महसूस हुआ कि अपने निजी कामों के निपटारे के लिए ग़ुलाम की ज़रूरत है।
बादशाह ने मंत्री से कह कर मंडी से अपने लिए एक हष्ट-पुष्ट ग़ुलाम खरीदवाया।
बादशाह के सामने ग़ुलाम हाज़िर हुआ।
बादशाह ने पूछा - तेरा नाम क्या है?
गुलाम ने कहा - ग़ुलाम का अपना कोई नाम नहीं होता। जो आप रख दे वही आयंदा से मेरा नाम नाम होगा?
बादशाह ने पूछा - तू खाता क्या है?
ग़ुलाम ने कहा - ग़ुलाम की अपनी कोई हैसियत नहीं होती कि अपने लिए कुछ खाने की फ़रमाईश करे। जो आप खाने को दें, वही ग़ुलाम को खाना पड़ेगा।
बादशाह ने पूछा - तू क्या कर सकता है?
ग़ुलाम ने कहा - जो आप हुक्म करें? हम करेंगे। चाहे उसमें ग़ुलाम की जान ही क्यों न चली जाए।

बादशाह ने पूछा  - तेरी चाहत क्या है?
ग़ुलाम ने कहा -  हुज़ूर मैं ग़ुलाम हूं। मेरी अपनी कोई चाहत नहीं हो सकती है।
बादशाह यह सुन कर बड़ी हैरत हुई। वो सोचने लगा कि यह कैसा निज़ाम है? जिसमें एक इंसान अपनी मर्ज़ी से न खा सकता है और घूम फिर सकता है। उसे अपना काम चुनने तक हक़ नहीं। इंसान का खुदा से रिश्ता कैसे बनेगा?
बादशाह ने उस ग़ुलाम को गले लगा लिया - तुमने मेरी आंखें खोल दीं। इंसान को दूसरे इंसान को बांधने का हक़ ख़ुदा ने नहीं दिया। ज्यादा पाने चाह में हम दूसरों को ग़ुलाम बना रहे हैं। खुदा ऐसे इंसानों को कभी बक्शेगा नहीं। जा आज से तू आजाद है। इसके साथ ही बादशाह ने अपनी सल्तनत में मुनादी पिटवा दी कि आज से हर ग़ुलाम आज़ाद है।

नोट - बचपन में एक सुनी हुई कथा पर आधारित। 
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