- वीर
विनोद छाबड़ा
अस्सी
के मध्य का ज़माना था। मस्ती भरा दौर था। कम आमदनी में भी जनता खुश थी, ज़रूरतें जो कम थीं।
हमारे
बड़े बाबू इलाहाबाद के रहने वाले थे। उन्हें अपने घर और ज़मीन से बहुत लगाव था। यों बाबू
के बैग में बहानों की कोई कमी तो रहती नहीं है। फिर हमारे बड़े बाबू के डीएनए में तो
घाट-घाट के अलावा संगम की नदियों का पानी था। शनिवार की दोपहर को निकले तो मंगल की
दोपहर बाद दिखते थे। बीच में छुट्टियां पड़ गयीं तो अगले हफ़्ते दीदार हुए। कुर्सी पर
कोट ज़रूर टंगा रहता ताकि सनद रहे कि इधर-उधर टहल रहे हैं, अभी आते ही होंगे। गर्मियों में कोट की जगह
झोला लटका दिखता था, जिसमें एक अदद फटी पतलून और मैली शर्ट रहती थी। हम जब नज़दीक गए तो बदबू आयी। अफसर
के मुंहलगे थे। लिहाज़ा जब चाहा टूर मिल गया। एक दिन का काम चार दिन में निपटा कर लौटे।
ऊपर से टीए-डीए। मौजां ही मौजां।
एक बार
बड़े बाबू शनीचर की दोपहर निकले तो अगले शनीचर तक न लौटे। अपनी खोज-खबर तक न दी। हम
लोग परेशान हुए। इस बीच नए अफसर आ गए। बहुत कड़क थे। ऊपर से सूट-बूट वाले। एमए, एलएलबी थे। कानून-कायदे से चलने वाले। शायद
इसीलिए साल भर से ज्यादा एक जगह कभी टिक नहीं पाये। बीस साल की नौकरी में पच्चीस तबादले
झेल चुके थे। जज साहब के उपनाम से मशहूर थे। उन्होंने कई बार बड़े बाबू को बुलवा भेजा।
प्यून आया और हम लोगों ने कुर्सी की पीठ पर लटके कोट की ओर इशारा कर दिया।
अफसर
को दाल में कुछ काला महसूस हुआ। खुद ही चले आये कमरे में। कुर्सी की पीठ पर टंगा कोट
देखा। मुस्कुराए। शायद कैरियर में ऐसे कई कोट देख रखे थे और झोले भी। उन्होंने हमें
पीछे आने का ईशारा इशारा किया। अगले क्षण हम उनके कमरे में हाज़िर। झूठ बोलना बेकार
था और वो भी जज के नाम से मशहूर अफसर के सामने, जो पर्दे के पीछे मछली की गंध सूंघने में माहिर
हो। हमने बिना उनके पूछे ही सब कुछ सच-सच उगल दिया।
सोमवार
की दोपहर बाद बड़े बाबू लौटे। उन्हें माज़रा पता चला तो वो बिलकुल नहीं घबराये। परफेक्ट
एक्टर थे। वो बाबू ही क्या जो एक्टिंग में माहिर न हो। अफसर के कमरे में घुसे और दंडवत
लेट गए। बच्चे की बीमारी का बहाना बनाया। अफसर कितना ही कड़क क्यों न हो, होता तो इंसान ही है। बच्चे की बीमारी के नाम
पर पिघल गए।
कहावत
है कि चोर चोरी से जाये, हेरा-फेरी से नहीं। बड़े बाबू ने फिर ऐसी ही हरकत की। इस बार उनकी हरकत अक्षम्य
थी। एक मुकदद्मे की फ़ाईल अपनी अलमारी में बंद कर गए थे। लिहाज़ा ठीक से पैरवी नहीं हो
पायी और विभाग मुकद्म्मा हार गया। अब बड़े बाबू के विरुद्ध कार्यवाही तो बनती ही थी।
लेकिन बड़े बाबू सहित जितने भी हरामख़ोर पैदा
हुए हैं, तक़रीबन
सब किस्मत के धनी होते हैं।
अफ़सर
अपने अक्खड़ स्वभाव और ज्यादा ईमानदार रहते अपने से बड़े अफ़सर से भिड़ गए। वो बड़े अफसर
मंत्री जी के चहेते थे। लिहाज़ा कड़क अफसर लाद दिए गए किसी दूसरे शहर।
बड़े बाबू
के विरुद्ध चल रही जांच की रफ़्तार भी धीमी हो गयी और कुछ दिनों बाद जांच ने दम भी तोड़
दिया।
बड़े बाबू
ने बाकी ज़िंदगी भी इसी तरह शान से काटी। जिस दिन उन्हें रिटायर होना था उस दिन वो इलाहाबाद
में ही थे। लेकिन शाम को विदाई समारोह में ठीक वक़्त पर हाज़िर हो गए। जाते हुए कुर्सी
पर टंगा कोट छोड़ गए, अगले बड़े बाबू के लिए।
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