-वीर विनोद छाबड़ा
आज के शोर-शराबे और हर तरफ़ ट्रैफ़िक जाम के दौर की तुलना में गुज़रा ज़माना ख़्वाब
जैसा लगता है। पहले मोटरकार होती थी। अब मोटर ग़ायब है, सिर्फ़ कार रह गयी
है।
अब कार रसूखदारों और बड़ों की बपौती नहीं है, बड़ी आसानी से आम आदमी
की पहुंच में है। शुरुआत मारूति ने की थी और टाटा की नैनों ने इसे थोड़ा सा आगे बढ़ाया।
मज़े की बात यह कि टाटा ने जिस अल्प आये के लिए बनाया, उसने ही रिजेक्ट कर
दिया। यह कार नहीं खिलौना है। एक लाख एक्स्ट्रा खर्च करके आल्टो न ख़रीद लें। स्टेटस
भी बनेगा।
हम यूपी के बत्ती विभाग के शक्ति भवन स्थित हेडक्वार्टर से रिटायर हुए हैं। वहां
वेतन इतना अधिक है कि तमाम छोटे-मोटे बाबू और तकनीशियन तक बड़ी बड़ी कारों के मालिक हैं।
अब ये बात अलबत्ता दूसरी है कि दिल छोटे हैं। कार पेट्रोल या गैस से चलती है। और ये
मुफ्त में नहीं पैसे से मिलता है। कईयों के लिए पैसा महत्वपूर्ण है। अरे भाई, दिल-गुर्दा होना भी
तो ज़रूरी है।
यों महंगे पेट्रोल ने भी बहुतों को अपनी हैसियत का अहसास करा दिया है। बेशुमार
छोटी-बड़ी कारों व स्कूटर-बाईको के कारण भयंकर ट्रैफ़िक जाम और नाकाफ़ी पार्किंग स्पेस
सच्चाई तो है ही, साथ ही कार को बाहर न निकालना बहाना भी।
एक साहब ने फ़रमाया - मुझे चलानी नहीं आती। आजकल ड्राईवर मिलते नहीं। क्या करूं? कोई मिले तो बताईयेगा।
हमने थोड़ा डांट दिया - भलेमानुस खरीदी ही क्यों थी, जब चलानी नहीं आती?
इसके साथ ही हमें अपने ज़माने के पेड़़ पर चढ़ी हीरोइन की याद आती है। वो नीचे उतरने
के लिए हीरो की चिरौरी कर रही थी।
एक समीक्षक ने टिप्पणी की थी - अरे भई, जब उतरना नहीं आता था तो चढ़ी ही क्यों थी?
बहरहाल, हमने एक ड्राईवर से बात की - फलां बाबू जी की गाड़ी चला लो।
उसने उस बाबू का नाम सुन कर मुंह बिचकाया - साहेब, हम उस बाबू को अच्छी
तरह जानते हैं। छोटी-मोटी कार रखे हैं। भौकाल ज्यादा है। बाबू होना गुनाह नहीं और न
ही कंजूस होना। लेकिन वो तो मक्खीचूस हैं। हफ़्ते में बामुश्किल एक बार कार निकालेंगे।
बूंद बूंद पेट्रोल का हिसाब रखते हैं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर पेट्रोल का लेवल देखते हैं।
कोई टिप नहीं देते। होली-दीवाली और ईद-बक़रीद पर नज़राना या तोहफ़ा भी नहीं। हमसे
फ्री में ड्राईविंग सीखना चाहते हैं।
फिर छोटी-मोटी कार चलाने में वो हनक कहां जो लाट साहबों की बड़ी और महंगी कारों
को रोज़ चलाने में है। और फिर साहब की मेमसाहब, बच्चों और उनके डॉगी
को दोपहर में शॉपिंग कराने का तो अलग ही खास आनंद है। हमें गिफ़्ट भी देते रहते हैं।
कभी ज़रूरत हुई तो कार भी दे देते हैं। हम भी अपने बच्चों को कार में घुमा लाते हैं।
पत्नी को मॉल से शॉपिंग करा देते हैं। इससे अपना भी तो स्टेटस बढ़ता है।
बाबू लोगों की कार चला के क्या मिलेगा? बाबाजी का ठुल्लू!
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14 June 2017
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