- वीर विनोद छाबड़ा
आज फ़ोन आया है,
कज़िन सिस्टर का। बेटी की शादी है, अक्टूबर की फलां तारीख़
को। आने-जाने का रिज़र्वेशन आज ही करवा लो भैया। अभी तो क़रीब चार महीना बाकी है। लेकिन
अब ज़माना बदल गया है। ट्रेन में बर्थ के लिए मारामारी है। कई कई दिन पहले रिजर्वेशन
करना पड़ता है।
हमें वो ज़माना याद
आता है। जब शादी की सूचना तो जल्दी दी जाती थी, लेकिन रिजर्वेशन पर
ज़ोर कभी नहीं होता था। पंद्रह-बीस दिन पहले आ जाओ। और वापस जाओगे भी हमारी मर्ज़ी से।
रिजर्वेशन का तो कोई मतलब ही नहीं होता था। जब चाहो, मुंह उठाओ और चल दो।
भीड़-भाड़ वाले दिनों में भी ट्रेन में बैठने की जगह तो मिल ही जाती थी। न हुआ तो फर्श
पर ही चद्दर बिछा कर पसर लिए।
यों ट्रेन से हमारा
जन्म का रिश्ता है। जब हम पैदा हुए थे तो पिताजी रेलवे में थे। हम रहे भी रेलवे स्टेशन
के सामने हैं और वो भी रेलवे कॉलोनी में। ऐसे में हफ़्ता पहले रिजर्वेशन की नौबत कभी
नहीं आने पायी। रेलवे कॉलोनी में रहने से फ़ायदा ही क्या? हमेशा जिस दिन जाना
हुआ, उसी दिन कराया और बर्थ पर लेट कर गए।
क्या दिन थे वो भी?
पिताजी को फ़ैमिली पास मिला हुआ था। पास नहीं तो पीटीओ। जब जी चाहा चल दिए,
दिल्ली या बनारस। मानों शॉपिंग करने डेढ़ किलो मीटर दूर अमीनाबाद जा रहे हैं।
हमारी कॉलोनी में ज्यादातर
टीटीई या गार्ड रहते थे, मुरादाबाद और मुगलसराय डिवीज़न के। हमारे पिताजी क्लेम ऑफिस में
थे। अक्सर टूर पर रहते थे। पास-पीटीओ हर समय उपलब्ध नहीं रहता था। जब स्कूल-कॉलेज में
दो-तीन दिन की छुट्टी पड़ी तो पड़ोस के बत्रा चाचा का दरवाज़ा खटखटा दिया - चाचाजी,
आज गाड़ी लेकर मुरादाबाद जा रहे हैं तो हमें भी लेते चलें।
बत्रा चाचा रहे हों
या श्रीवास्तव चाचा, किसी ने कभी मना नहीं किया। मुरादाबाद तक तो कोई समस्या नहीं
थी। आगे के लिए चाचा जी ने टिकट ले कर दूसरी ट्रेन में बैठा दिया। लेकिन अगर त्रिवेदी
चाचा की ड्यूटी रही तो मज़ा ही आया समझो। वो यूनियन के नेता भी थे। मुरादाबाद के आगे
दिल्ली तक भी फ्री की यात्रा का इंतज़ाम हो जाया करता था। उनके कॉउंटरपार्ट हमें दिल्ली
स्टेशन के गेट के बाहर तक छोड़ा करते थे, रास्ते में चाय-नाश्ते
का भी प्रबंध अलग से। हम उनसे अगले हफ्ते भर की ड्यूटी भी पूछ लिया करते थे ताकि जाना
भी फ्री हो जाए।
दिल्ली में दादा जी
का घर तो था ही। रहने-ठहरने और खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं रही। वहां दो दिन रहे।
सदर, करोलबाग़ और कनॉटप्लेस घूमे। एकाध फ़िल्म देखी। और फिर वापसी।
त्रिवेदी चाचा के कनेक्शन वाला कोई मिल गया तो ठीक, नहीं तो मुरादाबाद
तक का टिकट और आगे के लिए अपनी कॉलोनी के कोई न कोई गार्ड या टीटीई चाचा मिल ही जाते
थे। बाद में जब पिताजी को पता चलता तो बहुत गुस्सा होते थे।
एक दिन तो गज़ब हो गया।
पिताजी अमृतसर गए हुए थे, टूर पर। मौका पाकर हम बिना टिकट दिल्ली पहुंच गए। देखा,
वहां पिताजी पहले से मौजूद हैं। वो अमृतसर से वाया दिल्ली घर लौट रहे थे। वहां
तो वो कुछ नहीं बोले। बल्कि बहुत खुश हुए। लेकिन लखनऊ लौट कर बहुत डांटा। अगर रास्ते
में मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गयी या विजीलैंस का छापा पड़ा तो ये त्रिवेदी या बत्रा चाचा
तुम्हें पहचानने से इंकार कर देंगे। सबसे पहले तो वो अपनी नौकरी बचाएंगे। उस दिन से
हमने कान पकड़े। पिता जी की परमीशन के बिना कभी नहीं निकले। जब भी यात्रा की,
पास या पीटीओ पर या फिर टिकट लेकर। हां, रिजर्वेशन ज़रूर जुगाड़
से कराते रहे।
समय आगे बढ़ता गया।
हम भी और पिताजी भी समय के साथ बढ़ते रहे। पिताजी का प्रमोशन हो गया। उनको प्रथम श्रेणी
का फ्री फ़ैमली पास मिलना शुरू हो गया। हम बहुत प्रसन्न। फर्स्ट क्लास में यात्रा का
मौका मिलेगा।
लेकिन हमारी ये ख़ुशी
एक दिन की ही रही। दूसरे ही दिन हमें ख़बर मिली कि इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में हमारी नौकरी
लग गयी है। और इधर पिताजी ने फ़ैमिली पास से हमारा नाम कटवा दिया।
जाओ, अब अपनी ज़िंदगी खुद
जियो।
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